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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
अर्थात् जो विद्या पुस्तकों में होती है, जो धन दूसरे के हाथों में होता है, कार्य के समय में न वह | विद्या काम देती है और न धन ही काम देता है ।
जैन सूत्रों के पाठ की शुद्ध परंपरा को सुरक्षित रखने का बड़ा प्रयास रहा है । पाठ में जरा भी स्खलन, परिवर्तन आदि न हो इसका पूरा ध्यान रखा गया है। अनुयोगद्वार सूत्र में इस संबंध में चर्चा की गई है।
उपाध्याय उच्चारण-संबंधी सभी विशेषताओं और नियमों का ध्यान रखते हुए साधुओं को सूत्रों। का पाठ देते हैं। उनका उत्तरदायित्व सूत्रों का पाठ देने तक है। जैसे ऊपर संकेत किया गया है, आचार्य शिष्यों को सूत्रों का अर्थ - अभिप्राय समझाते हैं ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि श्रमण संघ की ज्ञान संपदा तथा चारित्र - संपदा के संवर्धन, | समुन्नयन एवं विकास का महान् उत्तरदायित्व आचार्य, उपाध्याय पर होता है। वे सब के लिए आदरणीय और पूजनीय होते हैं।
समस्त साधुओं को तो ये साधना पथ पर आगे बढ़ाते ही हैं, स्वयं भी साधना में निरत रहते हैं। क्योंकि जैन धर्म में स्वोपकार या आत्मकल्याण को उपेक्षित कर केवल पर-कल्याण में संलग्न रहने का आदेश नहीं है । अतएव साधु स्व-पर- कल्याण-परायण कहे जाते हैं। आत्म-साधना तो उनका मूल कर्तव्य है। आचार्य और उपाध्याय पद की महत्ता की बुनियाद में साधुत्व के मूल गुण निक्षिप्त हैं। उन्हीं के सहारे उनका परलोक सिद्ध होता है। मुमुक्षत्व सार्थकता पाता है। अतएव गौतम ने ऊपर भगवान् | से जो प्रश्न किया, वह इसी संदर्भ से जुड़ा हुआ है। आचार्य और उपाध्याय की अपनी-अपनी वैयक्तिक साधनाओं के साथ उसका संबंध है।
भगवान् ने जो बतलाया, वह आचार्य और उपाध्याय के साधना के उत्कर्ष के साथ संबद्ध है। भगवान् ने जो यह कहा है कि 'कितने ही आचार्य और उपाध्याय उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं', उसका तात्पर्य यह है कि उनकी संयम साधना तथा तपश्चर्या इतनी तीव्र होती है कि उसी जन्म में अपने-अपने समग्र कर्म क्षीण कर डालते हैं । अत: सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु कुछ आचार्य और उपाध्याय ऐसे होते हैं। कि एक जन्म में वे अपने समस्त कर्मों का क्षय नहीं कर सकते। पुनः मनुष्य जन्म में आते हैं, तपश्चरण द्वरा अपने अवशिष्ट कर्मों को क्षय कर देते हैं, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त कर लेते | हैं और सर्व दुःख- रहित हो जाते हैं ।
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आगे भगवान् इसके बारे में कुछ और अधिक स्पष्टीकरण करते हैं कि कोई ऐसे आचार्य, उपाध्याय नहीं होते, जो तीसरे भव का अतिक्रमण करें । अर्थात् तीसरे भव में तो वे मुक्त हो ही जाते हैं।
१. अनुयोगद्वार - सूत्र, सूत्र - १९.
२. आवश्यक सूत्र, पृष्ठ : ९३, ९४.
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