SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार व्याख्याप्रज्ञाप्ति-सूत्र की वृत्ति के मंगलाचरण में वृत्तिकार ने लिखा है- आचार्य सूत्रार्थ के वेत्ता वाले होते हैं। वे उत्कष्ट लक्षण युक्त होते हैं। वे गण के लिए मेदि भूत-स्तंभरूप होते हैं। वे गण की तप्ति-- परिताप से विप्रमुक्त होते हैं । अर्थात् उनके नेतृत्व में गतिशील गण संताप रहित होता ने शिष्यों को आगमों की अर्थ-वाचना देते हैं। उन्हें आगमों का रहस्य- सार समझाते हैं। पंचविध आचार- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार का स्वयं पालन करते हैं तथा इनका प्रकाशन या संप्रसार करते हैं। इनका उपदेश देते हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है वे स्वयं आचार का पालन करते है। अपने अनुयायियों से पालन करवाते हैं, इसलिए वे आचार्य कहे जाते हैं। जैन धर्म ज्ञान और आचार के समन्वित मार्ग पर आधारित है। संयममूलक आचार का पालन जैन साधक के जीवन का जहाँ अनिवार्य अंग है, वहाँ उसके लिए यह भी अपरिहार्य है कि वह ज्ञान की आराधना में भी अपने को तन्मय बनाए। ज्ञानपूर्वक आचरित क्रिया में शुद्धि की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है। इसी प्रकार क्रिया परिणत ज्ञान की वास्तविक सार्थकता है। | जैन संघ में शास्त्र-ज्ञान की परंपरा अक्षुण्ण रहे, इसलिए उपाध्याय का पद प्रतिष्ठित हुआ। आचार्य | के बाद उपाध्याय का स्थान है। इस पद का संबंध मुख्यत: अध्ययन के साथ जुड़ा हुआ है। उपाध्याय श्रमणों को सूत्रों की वाचना देते हैं। उपाध्याय के संबंध में कहा गया है-जिनेश्वर देव द्वारा आख्यात, ज्ञानियों द्वारा संग्रथित द्वादशांग रूप आगम-सूत्रों की जो श्रमणों को वाचना देते हैं, वे उपाध्याय कहे जाते हैं। श्रमणों को शिक्षण देने में आचार्य और उपाध्याय दोनों का अपना-अपना महत्त्व है। उपाध्याय उन्हें सूत्रों की वाचना देते हैं अर्थात् वे उन्हें पाठ सिखलाते हैं, कंठस्थ कराते हैं। वाचना देने का अभिप्राय आगम-सूत्रों का पाठ सिखलाना या कण्ठस्थ कराना है। प्राचीन काल में कंठस्थ-परंपरा से ही स्त्रज्ञान चलता रहा है। कंठस्थ का बहुत बड़ा महत्त्व है। कोई भी शास्त्र यदि कंठस्थ होता है तो उस पर विवेचक या उपदेशक विशद रूप में व्याख्या कर सकता है। इस संबंध में एक उक्ति बहुत प्रसिद्ध है पुस्तकेषु च या विद्या, परहस्तेषु यद्धनम् । कार्यकाले समुत्पन्ने, न सा विद्या न तद्धनम् ।। १. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१, उद्देशक-१, सूत्र-१, मंगलाचरण-वृत्ति. २. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१, उद्देशक-१, सूत्र-१, मंगलाचरण-वृत्ति. 182 HERE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy