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________________ PORNVAROGA KETNMORE SUNDHARANE HISTHAN KRRISORTARAM ROERHOEA RAMMAR MASTER मा VIEWERS EXIPSARAames Grahan SEARNAVARAN णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन FORoads Sanahate HIN PO D EMOISONITIVAEMONOMATAAMROSASUDIPARISHA SAINAakanilionsaninila Business mailIASIA Baahusandwa TAHI बिगड़ता। वहाँ लिखा है बासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रहणाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। जैसे कोई मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा जीर्ण शरीर को त्याग कर नया शरीर धारण करती है, यथा नैनं छिन्दन्ति शास्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। आत्मा को शस्त्र छिन्न नहीं कर सकते, काट नहीं सकते। अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे भिगो नहीं सकता तथा वायु सुखा नहीं सकती। अर्थात् आत्मा अभौतिक है। भौतिक पदार्थों का, उनके क्रिया कलाप का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। व्याख्याप्रज्ञाप्ति-सूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मा की अनश्वरता एवं शाश्वतता पर जो उद्गार प्रगट किए गए हैं, परस्पर समानता लिए हुए हैं, ऐसा दृष्टिगोचर होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र के अंतर्गत आचार्य एवं उपाध्याय के संबंध में एक चर्चा आई है। गौतम भगवान् महावीर से जिज्ञासा करते हैं- भगवन् ! स्व-विषय में-सूत्र एवं अर्थ की वाचना देने में गण को, साधु-संघ को या शिष्य-समूह को अग्लान-अखिन्न या अपरिश्रांत भाव से स्वीकार करते हुए अर्थात् उन्हें सूत्र और अर्थ की वाचना देते हुए, पढ़ाते हुए, अग्लान भाव से उनको संयम-पालन में सहयोग करते हुए, आचार्य एवं उपाध्याय कितने भव-जन्म ग्रहण करते हुए सिद्धत्व प्राप्त होते हैं, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत एवं समस्त दुःख-रहित हो जाते हैं ? भगवान् ने उत्तर दिया- हे गौतम ! कितने ही आचार्य, उपाध्याय ऐसे होते हैं, जो एक ही भव में सिद्धत्व पा लेते हैं। कतिपय ऐसे होते हैं, जो दो भव में सिद्धि पाते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। ney S URARIODKARVEEHRARATHISRONTANTRA AAMSHESHESHASTMAITales विशेष जैन श्रमण-संघ के पदों में आचार्य पद का बहुत महत्त्व है। संघ के संवर्धन, संपोषण तथा अनेक प्रकार की देखभाल का उत्तरदायित्व आचार्य पर होता है। साधु-संघ में उनका आदेश अंतिम तथा सर्वमान्य होता है। Kanchhincarnationawanpati sen Osmane susmasan १. श्रीमद्भगवतगीता, अध्याय-२, श्लोक-२२, २३. २. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-५, उद्देशक-६, सूत्र-१७, पृष्ठ : ४७३. 181
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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