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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
के रूप में
रूप संचित कर्म झड़ जाते हैं। व्यवदान का फल अक्रिया- योग रहितता है। अक्रिया का फल
| सिद्धत्व है।
२, कायिक
के साथ का संचार
नये
जो अनंत
वीर्यत्व पेक्षा से
सिद्धजीव : वृद्धि हानि-अबस्थिति-कालमान
व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र का एक प्रसंग हैं। गौतम भगवान् से प्रश्न करते हैं- भगवन् ! सिद्ध घटते हैं, बढ़ते हैं या अवस्थित रहते हैं ? इसके उत्तर में भगवान् ने कहा- हे गौतम ! सिद्ध जीव बढ़ते हैं, घटते नहीं। वे अवस्थित रहते हैं। __पनश्च गौतम ने भगवान् से पूछा- जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? भगवान् ने कहा- जीव सब काल में अवस्थित रहते हैं। । यहाँ जो वर्णन किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि सिद्धत्व प्राप्ति का क्रम तो चलता ही रहता है। कभी बंद नहीं होता, चलता ही रहेगा। इसलिए सिद्ध संख्यात्मक दृष्टि से बढ़ते ही जाते हैं। बढ़ते ही रहेंगे। जो सिद्धत्व प्राप्त कर लेते हैं, वे कभी वापस नहीं लौटते । शाश्वत रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं। वे अंत रहित हैं। इसलिये भगवान् ने उनके बढ़ने की बात कही। उनके घटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। वे पुनरावर्तन रहित हैं। वे सदा अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं। इसलिए उनमें वृद्धि और अवस्थिति तो है किन्तु हानि नहीं है। | जीव का कभी नाश नहीं होता। संसारी जीव अपने-अपने कर्मों के कारण पर्याय-परिवर्तन करते हैं । व्यवहारिक भाषा में उसे मरण या नाश कहा जाता है, किन्तु वह तो शरीर का है, जीव का नहीं। जीव एक शरीर को छोड़कर, दूसरा शरीर धारण कर लेता है। इसलिए उसकी सार्वकालिक अवस्थिति अव्याहत रहती है। - श्रीमद्भगवद्गीता में एक प्रसंग है- जब महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने वाला था तब अर्जुन दोनों ओर युद्ध के लिये एकत्रित, सुसज्जित सेना को देखकर, युद्ध के परिणाम को सोचकर, विमोहित हो उठा। दोनों ही ओर अपने संबंधी, बंधु-बांधव, मरने-मारने के लिए उपस्थित हैं, इससे वह विचलित हो उठा। तब योगिराज श्री कृष्ण ने उसको जीवन, शरीर और आत्मा का भेद समझाया और बतलायाअर्जुन ! तुम शरीर को आत्मा मानते हो, यह तुम्हारी भूल है। शरीर का छूट जाना आत्मा का नाश नहीं है।
अनासक्त-भाव से कर्म करते हुए यदि शरीर छूट भी जाता है तो आत्मा का कुछ भी नहीं
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१. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-२, उद्देशक-५, सूत्र-२६. २. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-५, उद्देशक-८, सूत्र-१३-१४, पृष्ठ : ५०३, ५०४.
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