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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
को वीर्य भी कहा जाता है। वह भोजन का अंतिम सार तत्त्व है, जो सारे शरीर में ओज के रूप में व्याप्त रहता है ।
वीर्य का दूसरा अर्थ आत्म-पराक्रम या आत्म-पुरुषार्थ है सभी मानसिक, वाचिक, कायिक पराक्रम, आत्म-पराक्रम के सहारे अग्रसर होते हैं। संयम, तपश्चरण आदि के विकास के साथ आत्म-पराक्रम या आत्म-वीर्य जुड़ा रहता है। अर्थात् इसके सहारे उन में गति एवं शक्ति का संचार होता है।
सिद्धों को अवीर्य इसलिये कहा जाता है कि वे कृतकृत्य होते हैं, जो करणीय था, उसे वे कर चुके हैं। सिद्धत्व प्राप्ति के बाद कुछ करना शेष नहीं रहता। इसलिए करणात्मक वीर्य से वे रहित कहे गये। हैं। वे तो अपने परमानंदमय स्वरूप में विद्यमान होते हैं ।
यहाँ पुन: एक प्रश्न उपस्थित होता है। शास्त्रों में सिद्धों को अनंतवीर्य कहा गया है। जो अनंत वीर्य हैं, वे अवीर्य कैसे है ?
इसका समाधान यह है कि उनका अवीर्यत्व करण या अकरण की अपेक्षा से है, किन्तु वीर्यत्व का उनमें अनंत अस्तित्व है । अनंत शक्तिमत्ता है । यह लब्धि की अपेक्षा से है, करण की अपेक्षा से नहीं है।
अक्रिया के संबंध में गौतम ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया अक्रिया का किवाहीनता का अथवा उत्कृष्टतम संयम आराधना द्वारा क्रिया से अतीत हो जाने का क्या फल है ?
भगवान् ने उत्तर देते हुए बतलाया कि अक्रिया का पर्य्यवसान या अंतिम फल सिद्धि है । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि अक्रियावस्था अयोगावस्था प्राप्त होने पर अंततः सिद्धि या मुक्तावस्था प्राप्त होती है ।
इस प्रसंग में वहाँ एक गाया का उल्लेख किया गया है, जिसमें पर्युपासना द्वारा सिद्धि तक पहुँचने के क्रम का संकेत है। वहाँ बताया गया है कि पर्युपासना धर्माराधना का पहला फल श्रवण है। धर्माराधक धर्मोपदेश सुनता है। दूसरा फल ज्ञान है। सुनने से उसे धर्म की जानकारी होती है। ज्ञान का फल विज्ञान है। धर्मोपासक जब सामान्य रूप में धर्म के सिद्धांतों को जान लेता है तो फिर वह अध्ययन, चिंतन, मनन द्वारा विशेष ज्ञान प्राप्त करता है ।
जब तत्त्वों का विशिष्ट, सूक्ष्म ज्ञान हो जाता है, तब वह प्रत्याख्यान करता है, जो त्यागने योग्य है, उसे छोड़ता है । प्रत्याख्यान की फल- निष्पत्ति संयम में होती है । वह संयत-चर्या अपनाता है । वैसा करने का फल अनानवत्व है। उससे कर्म - आम्रव- कर्म आने के मार्ग रुक जाते हैं। जिससे संबंर सिद्ध हो जाता है । अनास्रवत्व का फल तपश्चरण है । तप का फल व्यवदान या निर्जरा है, जिसके परिणाम
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