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________________ ल में नालन भी कहते इस धरम तान स्था यह नम क नि आगमों में सिद्धपद का विस्तार केवली मनुष्य केवल ज्ञान प्राप्त पुरुष सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परिनिर्वृत हुए हैं ? क्या उन्होंने सब दुःखों का अंत किया है ? हाँ, गौतम ! वे सिद्ध-बुद्ध - मुक्त और परिनिर्वृत हुए हैं । उन्होंने समग्र दुःखों का अंत किया हैं । यहाँ भी छद्मस्य के सदृश ही तीन आलापक कथनीय हैं। तीन आलापक- अतीत, वर्तमान और भविष्य विषयक वक्तव्य योजनीय हैं। आगे उसी प्रश्न के स्पष्टीकरण हेतु गौतम भगवान् से पूछते हैं- प्रभुवर! बीते हुए अनंत शाश्वत | काल में वर्तमान और अनंत शाश्वत भविष्यकाल में संसार का अंत करने वाले अथवा चरम शरीर युक्त | पुरुषों ने समस्त दुःखों का नाश किया हैं, करते है या करेंगे ? क्या वे सब, उत्पन्न - ज्ञान- दर्शनधर, अर्हत् जिन और केवली होने के पश्चात् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होते हैं? सब दुःखों का अंत करते हैं। इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं- बीते हुए अनंत शाश्वत काल से लेकर जहाँ तक तुमने पूछावे सब सिद्ध, बुद्ध, मुक्त तथा परिनिर्वृत होते हैं और सर्व दुःखों का अंत करते हैं । 1 गौतम भगवान् की प्ररूपणा में अत्यंत आस्था और विश्वास प्रगट करते हुए यह ऐसा ही है, जो आप प्रतिपादित करते हैं वही तथ्य है। असंसार समापन्नक : सिद्ध गौतम ने भगवान् महावीर से जीव एवं चौबीस दंडकों के संदर्भ में सवीर्यत्व और अवीर्यत्व के विषय में एक स्थान पर प्रश्न किए। उनके अंतर्गत एक प्रश्न के उत्तर में भगवान् गौतम को बतलाते है कि एक अपेक्षा से जीव दो प्रकार के हैं- (१) संसार समापन्नक और (२) असंसार समापत्रक । जो जीव संसारावस्था में समापन्न या संस्थित होते हैं. वे संसार समापनक या सांसारिक कहे जाते हैं जो जीव संसार समापन्नता- संसारावस्था समाप्त कर देते हैं, कर्मों का क्षय कर संसार से आवागमन से छूट जाते हैं, ये असंसार समापन कहलाते हैं। वे सिद्ध जीव हैं, वे अवीर्य हैं।" १. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, शतक-१, उद्देशक ४ सूत्र १६, पृष्ठ ८८. , 'कहते हैं- भगवन् ! वीर्य शब्द के दो अर्थ होते हैं । मनुष्य जो भोजन करता है, उससे आयुर्वेद के अनुसार सात धातुएँ। निष्पन्न होती हैं- (१) रस, (२) रक्त, (३) मांस, (४) मेदा, (५) अस्थि ( ६ ) मज्जा, (७) शुक्र । शुक्र , २. व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, शतक-१ उद्देश- ४ सूत्र- १६, पृष्ठ व्याख्याप्ति सूत्र, सतक-१ उद्देश- ४ सूत्र- १८, पृष्ठ ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र, शतक-१, उद्देशक- ८, सूत्र - १०२. 178 ८८. ८८.
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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