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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
त्रि कहते हैं। के २५ गुण
चीनता और - मंत्र केवल
सिक वाचिक तथा कायिक योगों से सर्वथा अतीत- रहित होते हैं। लोग उनसे प्रेरणा ले सकते हैं. मितत्व का चिंतन कर अनुभावित हो सकते हैं किन्तु सिद्धों की ओर से वैसा कुछ नहीं होता। साक्षात् बांडामयात्मक संबंध के कारण अर्हतों की लोगों के साथ अत्यधिक निकटता है, उपकारिता है, इसलिये
प्रथम पद में रखा गया है। अतिशय ऊर्जा के योग्य होने से ये अर्हत कहे जाते है।
णमोक्कार मंत्र में साधू, उपाध्याय, आचार्य, अर्हत्-अरिहंत तथा सिद्ध– इन पाँच पदों में पाँचवा पद ही सब का साध्य है। साधु से लेकर अरिहंत तक सभी सिद्धत्व प्राप्त करने की दिशाओं में उद्यात होते हैं। यों कहा जाए तो अत्युक्ति नहीं होगी कि आध्यात्मिक साधना में जो भी संलग्न हैं, वे सब इसी पद की कामना करते हैं क्योंकि इस पद को पालने पर बहिरात्म-भाव तथा अंतरात्म-भावपरमात्म-भाव में परिणत हो जाते हैं। संयममय साधना की यह चरम पराकाष्ठा है।
। लेख ई.पू. ों की भाँति ध हो।
एगा। अत:
स्थानों के होती है। स्थिति में क है। ह सही है रम लक्ष्य रीरी हैं। । आसन्न पिदेश से
पद को
सिद्धपद का निर्वचन
व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र के वृत्तिकार ने 'सिद्ध शब्द का छ: प्रकार से निर्वचन किया है।
पहली व्युत्पत्ति यह है- बंधे हुए आठ प्रकार के कर्म रूपी इंधन को जिन्होंने भस्म कर दिया है, वे सिद्ध है।
दूसरी व्युत्पत्ति के अनुसार- सिद्ध वे हैं, जो ऐसे स्थान में पहुँच गये हैं, जहाँ से फिर वापस कभी लौटकर नहीं आते।
तीसरी व्युत्पत्ति में ऐसा कहा गया है--- जो सिद्ध, सफल या कृतकृत्य हो गये हैं, जिन्हें जो साधना था, उसे साधकर अपना कार्य कर चुके हैं, वे सिद्ध हैं।
चौथी व्युत्पत्ति के अनुसार- जो संसार को अर्हत् अवस्था में उपदेश देकर मुक्त हो गये हैं। पाँचवी व्युत्पत्ति के अनुसार- सिद्ध वे हैं, जो नित्य शाश्वत स्थान प्राप्त कर चुके हैं।
छठी व्युत्पत्ति के अनुसार- जिनके गुण समूह सिद्ध हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। सिद्धत्व प्राप्ति : शंका : समाधान
। व्याख्याप्रज्ञप्ति-सूत्र में एक प्रसंग आता है। वहाँ गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से सिद्धत्व प्राप्ति के संदर्भ में कतिपय प्रश्न किए, जिनका भगवान् ने समाधान किया, उन प्रश्नोत्तरों से तत्त्वबोध प्राप्त होता है।
है किन्तु
योंकि वे
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-१, पृष्ठ : १३६. २. भगवती-सूत्र, शतक-१, उद्देशक-१, सूत्र-१, वृत्तिपत्रांक-४.
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