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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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इन पवित्र वाक्यों को निर्ग्रन्थ-प्रवचन में नवकार मंत्र, नमस्कार मंत्र या पंचपरमेष्ठी मंत्र कहते हैं अर्हत् भगवान् के बारह गुण, सिद्ध भगवान् के आठ गुण, आचार्य के ३६ गुण, उपाध्याय के २५ गुण और साधु के २७ गुण-- सभी मिलकर १०८ गुण होते हैं।
कलिंग सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित हाथी गुंफा पर जो लेख है, वह पुरातत्त्व, प्राचीनता और इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उस लेख में, जो ब्राह्मीलिपि में है, यह मंत्र केवल निम्नलिखित चौदह अक्षरों में अंकित है. प्रचलित पैंतीस अक्षरों में नहीं --
___नमो अरहतानं । नमो सब सिधानं ।' शिलालेख में उसके लेखन की तिथि नहीं मिलती परन्तु इतना स्पष्ट है कि यह शिलालेख ई.प. दूसरी शताब्दी का है, अर्थात् अब से दो हजार वर्ष पुराना। हो सकता है, अन्य कुछ अक्षरों की भाँति इसकी तिथि भी भग्न हो गयी हो। इस मंत्र का इससे पुराना लेख शायद ही कहीं उपलब्ध हो ।
यहाँ यह ज्ञाप्य है कि णमो अरिहंताणं का विवेचन चतुर्थ अध्याय में यथाप्रसंग किया जाएगा। अत: यहाँ शोध-ग्रंथ के विषय से संबद्ध ‘णमो सिद्धाणं' का विश्लेषण अपेक्षित है। णमो सिद्धाणं
सिद्ध-पद णमोक्कार मंत्र के दूसरे स्थान पर है। अर्हत् पहले स्थान पर है। गुणस्थानों के विकास-क्रम के अंतर्गत अर्हत् का तेरहवाँ गुणस्थान है। सिद्धत्व-प्राप्ति चौदहवे गुणस्थान में होती है। तेरहवाँ गुणस्थान सयोग- योग सहित है क्योंकि तब भी कुछ कर्म अवशिष्ट रहते हैं। ऐसी स्थिति में अर्हत् को, जो सिद्ध से नीचे का पद है, पहले क्यों लिया गया ? ऐसी शंका होना स्वाभाविक है।
आचार्यों ने, विद्वानों ने शास्त्रों में इस पर विस्तार से मनन और विवेचन किया है। यह सही है| कि सिद्ध सर्वोपरि हैं। अर्हतों को भी अंत में सिद्धत्व प्राप्त करना होता है अर्थात् उनका चरम लक्ष्य सिद्धत्व है किन्तु संसार के लोगों की अपेक्षा से एक भिन्न स्थिति सामने आती है। अर्हत् सशरीरी हैं। वे धर्म-देशना देते हैं । जन-जन का उपकार करते हैं। इसलिए वे आसन्न-उपकारी कहे जाते हैं । आसन्न | का अर्थ निकटतम है। अर्थात् वे प्राणियों के साक्षात् उपकारक हैं। उनके द्वारा दिये गये धर्मोपदेश से प्रेरणा प्राप्त कर प्राणी धर्म के पथ का अवलंबन करते हैं, उनसे उपकत होते हैं। इसलिये इस पद को प्रथम पद के रूप में स्वीकार किया गया है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि सिद्धों का स्थान अर्हतों से कम है। स्थान तो उनका ऊँचा ही है किन्तु। वे तो अपने शुद्ध परमात्म-स्वरूप में अवस्थित होते हैं. किसी प्रकार का उपदेश नहीं देते क्योंकि व १. मोक्षमाला, पृष्ठ : १११.
२. तीर्थकर, भाग-१.
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