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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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पश्चात् अर्धमास, तीन वर्ष, आठ मास, पंद्रह दिन के शेष रहने पर देह त्याग कर सिद्ध, बुद्ध, मक परिनिर्वृत तथा सर्व-दुःख-विरहित हुए।
श्रमण भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थ दुषम-सुषमनामक आरक के उत्तरार्द्ध भा में अर्धमास, तीन वर्ष, आठमास, पंद्रह दिन अवशिष्ट रहने पर देहत्याग कर सिद्ध बुद्ध, मुक्त, परिनिर्व तथा सर्व दुःख रहित हुए।
भगवान् अरिष्टनेमि चौपन दिन कम सात सौ वर्ष कैवल्यावस्था में रहकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और सर्व-कर्म रहित हुए। प्रदेशावगाहना
जैन दर्शन के अनुसार जीव के प्रदेश शरीर के समग्र भागों में व्याप्त रहते हैं। कतिपय अन्य दर्शनमस्तिष्क, हृदय आदि को जीव या आत्मा का स्थान मानते हैं। जैन दर्शन की मान्यता ऐसी नहीं हैं। जैसे दुग्ध के कण-कण में घृत व्याप्त रहता है, वैसे ही जीव और शरीर का व्याप्य-व्यापक संबंध है। । अन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले विद्वानों ने ऐसे प्रश्न उठाये हैं कि यदि जीव शरीर-व्यापी है तो एक चींटी मरकर अपने कर्मों के फलस्वरूप हाथी की योनि में जन्म ले तो चींटी के शरीर में जो आत्मा थी, वह तो प्रदेशों की दृष्टि से सीमित थी, हाथी के शरीर में वह कैसे टिकेगी ? उसी प्रकार यदि | एक हाथी मरकर किसी कीड़े के रूप में जन्म ले तो हाथी की आत्मा, जो बहुत विशाल थी, वह एक चींटी के छोटे शरीर में कैसे समाएगी? ___ जैन दार्शनिकों ने इसका बहुत न्याय एवं युक्ति पूर्ण समाधान किया है। आत्मा के प्रदेश मूर्त नहीं हैं, अमूर्त हैं। उनमें अत्याधिक संकुचित और अत्याधिक विकसित-विस्तीर्ण होने की अद्भुत क्षमता है। नाम-कर्म के उदय स्वरूप जीव को जैसा शरीर प्राप्त होता है, उसके अनुरूप आत्म-प्रदेश संकुचित या| विस्तृत हो जाते हैं। यह आत्म-प्रदेशों की अवगाहना है।
अवगाहना के संबंध में एक संदर्भ समवायांग-सूत्र में आया है, जिसमें बलताया गया है कि पाँचसौ धनुष की अवगाहना युक्त चरम शरीरी सिद्ध पुरुषों के आत्मा के प्रदेशों की अवगाहना कुछ अधिक तीन सौ धनुष-परिमित होती है।
यहाँ यह गणित योजनीय है कि जब देह-त्याग कर जीव सिद्धत्व को प्राप्त करता है, तब वह जिस
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१. समवायांग-सूत्र, समवाय-१८९, सूत्र- ४१२... २. समवायांग-सूत्र, अनेकोत्तरिकावृद्धि-समवाय, सूत्र-४७३. ३. समवायांग-सूत्र, अनेकोतरिकावृद्धि-समवाय, सूत्र-४५७.
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