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- णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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दूसरा भेद मुक्त- अमुक्त है। जगत् में कोई निर्धन- दरिद्र पुरुष परिग्रह रहित, धन-संपत्ति 3 से विवर्जित होने से द्रव्य से तो मुक्त हैं किन्तु परिग्रह में, धन-वैभव आदि में उसकी लिप्सा, लालसा रहती है, इसलिए वह भावात्मक दृष्टि से मुक्त नहीं है, अमुक्त है।
तीसरा भेद-अमुक्त-मुक्त है। कोई एक ऐसा व्यक्ति होता है, जो द्रव्य से तो मुक्त नहीं होत राज्य, संपत्ति, विभूति, ऐश्वर्य-विविध प्रकार के परिग्रह से, द्रव्य से अमुक्त होता है, उसके यहाँ बाह दृष्टि ये परिग्रहात्मक साधन विपुल मात्रा में होते हैं किन्तु वह उनमें जरा भी मूर्च्छित, आसक्त ना होता। भरत चक्रवर्ती इसके उदाहरण हैं। वह परिणामों की दृष्टि मे मुक्त है।
चौथा भेद-अमुक्त-अमुक्त है। कोई ऐसा व्यक्ति होता है, जो द्रव्यात्मक दृष्टि से भी अमुक होता है, धन संपत्ति आदि रखता है और भावात्मक दृष्टि से भी अमुक्त होता है अर्थात अपनी संपत्ति में अत्यंत मूर्छा और आसक्ति रखता है। उसका मन हर समय संपत्ति के साथ ही ग्रस्त रहता है।
यहाँ मुक्त-अमुक्त की उनके भेदों की चर्चा मुक्त शब्दों के प्रयोग के साथ जुड़े विभिन्न आशयों को व्यक्त करने के लिए है। मुक्त या सिद्ध के अस्तित्व-बोध के लिए नहीं है। इतना अवश्य समझा जा सकता है कि मुक्त-मुक्त के रूप में जो पहले भेद की चर्चा की गई, वहाँ ऐसे साधक का प्रतिपादन हुआ है, जो मोक्ष या सिद्धत्व-प्राप्ति की दिशा में गमनोद्यत होता है। वह साधना द्वारा, तपश्चरण द्वारा जब समस्त कर्मकालुष्ट छूटकर निर्मल-निर्विकार हो जाता है, तब वह सिद्धत्व को स्वायत्त कर लेता है।
भव्य-सिद्धिक: अभव्य-सिद्धिक
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स्थानांग-सूत्र में भव्य-सिद्धिक और अभव्य-सिद्धिक वर्गणा का वर्णन करते हुए लिखा है
जो जीव भव्य-सिद्धिक होते हैं, उनकी वर्गणा एक है। उसी प्रकार अभव्य-सिद्धिकों की भी वर्गणा एक है। भव्य-सिद्धिक नैरयिकों की नारक जीवों की वर्गणा एक है। अभव्य-सिद्धिक नारक जीवों की भी एक वर्गणा है। इस प्रकार अंसुरकुमार देवों से लेकर भव्य-सिद्धिक वैमानिक देवों तथा अभव्यसिद्धिक वैमानिक देवों के सभी दंडकों की वर्गणा एक-एक है। अर्थात उनमें प्रत्येक दंडक की वर्गणा एक-एक है।
'भव्य' और 'अभव्य- जैन धर्म के पारिभाषिक शब्द हैं, जो अपना विशेष अर्थ लिए हुए हैं। साधरणत: भव्य का अर्थ होने योग्य' है और अभव्य का न होने योग्य है। जैन सिद्धांतानुसार भव्य उन जीवों को कहा जाता है, जिनमें सिद्ध-पद पाने की मलत: योग्यता होती है। वे कभी न कभी |
१. स्थानांग-सूत्र, स्थान-४, सूत्र-६१२.
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