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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार आसव-निरोध, संवर तथा कर्म-निर्जरण द्वारा सिद्ध-पद पाने में योग्य होते हैं किन्तु कुछ ऐसे जीव होते हैं, जिनमें सिद्धत्व प्राप्त करने की मूलत: योग्यता नहीं होती। वे अभव्य कहलाते हैं। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है- यह भव्यत्व और अभव्यत्व क्यों घटित होता है ? क्या कोई ऐसे | कर्म हैं, जिनके उदय या परिणामस्वरूप ऐसा होता है। सिद्धांत-ग्रंथों में इस संबंध में विशेष रूप में| विवेचन-विश्लेषण हुआ है, जिसका सारांश यह है कि भव्यत्व और अभव्यत्व स्वभावगत है। कई आत्माएँ ऐसी होती हैं, जो स्वभावत: भव्य होती है। इसी प्रकार कतिपय आत्माएँ स्वभावत: अभव्य होती हैं। स्वाभाविक होने के कारण इसमें कदापि कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। भव्यजीव कभी अभव्य नहीं हो सकता और अभव्य जीव कभी भव्य नहीं हो सकता, क्योंकि स्वभाव अपरिवर्त्य होता है। वह त्रिकालाबाधित और शाश्वत होता है। सिद्धि की एकरूपता स्थानांग-सूत्र में एक स्थान पर उल्लेख है- सिद्धि एक है, सिद्ध एक है, परिनिर्वाण एक है तथा परिनिर्वृत एक है। __ यहाँ सिद्धि को एक कहा जाना संख्यापरक नहीं है- स्वरूपपरक है। स्वरूपात्मक दृष्टि से सिद्धि में कोई अंतर नहीं है। सभी सिद्धि-प्राप्त जीवों को जो शाश्वत, अव्याबाध, आध्यात्मिक आनंद प्राप्त होता है, वह एक समान है। सिद्ध एक है, इसका तात्पर्य संख्यात्मक नहीं है। क्योंकि अब तक अनंत जीव सिद्ध बन चुके हैं और बनते रहेंगे। इसलिए किसी एक जीव का सिद्ध होने का प्रश्न ही नहीं होता। उन सभी सिद्धों को एक शब्द द्वारा इसलिए अभिहित किया गया है क्योंकि वे स्वरूप, अवस्था आदि की दृष्टि से परस्पर किंचित् | मात्र भी भेद लिए हुए नहीं हैं। परिनिर्वाण एक है। इसका तात्पर्य यह है कि जब समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, तब तज्जनित विकार संपूर्णत: मिट जाते हैं। आत्मा परमशांति को प्राप्त करती है। वह परम शांतावस्था ही निर्वाण है। वह शांत-अवस्था सर्वत्र एक सदश होती है। उसमें किसी प्रकार का अंतर नहीं होता। इसीलिए परिनिर्वाण को एक कहा गया है। जो परिनिर्वाण प्राप्ति कर लेते हैं. वे जीव परिनिर्वत कहे जाते है। संख्या में तो वे अनंतानंत होते है किंतु तद्गत परिनिर्वति तुल्य होती है, एक समान होती है। इसी अपेक्षा से उन्हें एक कहा गया है। १. स्थानांग-सूत्र, स्थान-१, सूत्र-१६५-१६७. २. स्थानांग-सूत्र, स्थान-१, सूत्र-४५-५४, पृष्ठ : ८. 162 HERE S REENERAaiheo HREE AVES HSSA A EDITA outh -
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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