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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार EE EFFFFLIEF समान गणवाले परमाणु-पिंड को वर्गणा कहा जाता हैं, जो पाँच प्रधान जाति युक्त सूक्ष्म स्कंधों में लोक के सर्व प्रदेशों पर अवस्थित रहते हुए जीव के सर्व प्रकार के शरीर एवं लोक के सर्व स्थल, भौतिक पदार्थों का उपादान कारण होती है। सिद्धों के जो पंद्रह भेदों की भिन्न-भिन्न वर्गणाएँ उपर्युक्त वर्णित की गई हैं, उसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध पर प्राप्त करने वाले विभिन्न प्रकार के व्यक्ति सिद्ध पद प्राप्ति से पूर्व जब शरीरावस्था में होते हैं. तब उनके शरीर जिन वर्गणाओं को लिए रहते हैं, सिद्ध पद पाने के अनंतर उन वर्गणाओं की अवगाहनात्मक अमूर्त स्थिति बनी रहती है। वह अमूर्त वर्गणात्मक स्थिति प्रत्येक कोटि के सभी सिद्धों की एक जैसी होती है। साथ ही साथ यह ज्ञातव्य है - "संसार-अवस्था में कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा के प्रदेश, क्षीर-नीर की तरह मिले रहते हैं। सिद्ध अवस्था प्राप्त होने पर कर्म-प्रदेश भिन्न हो जाते हैं, केवल आत्म प्रदेश ही रह जाते हैं | और वे सधन हो जाते हैं। मुक्त-अमुक्त विश्लेषण ___ स्थानांग-सूत्र में मुक्तता और अमुक्तता के आधार पर चार प्रकार के पुरुष बतलाए गए हैं । मुक्त शब्द जो मुख्यत: सिद्ध का पर्यायवाची है, बड़ा रहस्यपूर्ण है। यह संस्कृत की 'मुच्' धातु से बना हैं, जो छूटने के अर्थ में है। मुक्त का अर्थ छूटा हुआ है। ___ स्थानांग के अनुसार पुरुष का पहला भेद मुक्त-मुक्त है। अर्थात् कोई साधक परिग्रह आदि का | त्याग कर चुका है, इसलिए वह द्रव्यात्मक दृष्टि से मुक्त है, तथा परिग्रह आदि में आसक्त, मूर्च्छित नहीं होता, इसलिए वह भावात्मक दृष्टि से भी मुक्त होता है। चाहे कोई सब कुछ त्याग दे पर यदि उसका मन उन त्यागे हुए पदार्थों से हटता नहीं, उसमें मूर्च्छित रहता है तो वह त्यागी नहीं होता क्योंकि वह उनके साथ मन द्वारा बंध रहता है। इसीलिए | भगवान महावीर ने मूर्छा को परिग्रह कहा है।' _ दूसरा भेद मुक्त- अमुक्त है । जगत् में कोई निर्धन- दरिद्र पुरुष परिग्रह रहित, धन-संपत्ति आदि से विवर्जित होने से द्रव्य से तो मुक्त हैं किन्तु परिग्रह में, धन-वैभव आदि में उसकी लिप्सा, लालसा बनी रहती है, इसलिए वह भावात्मक दृष्टि से मुक्त नहीं है, अमुक्त है। १. जैनेंद्र सिद्धांत कोष, भाग-३ पृष्ठ : ५११. २. जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ : ११६. ३. दशवैकालिक-सूत्र, अध्ययन-६, गाथा-२०. 160 SADIMEmmer .
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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