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________________ B a raanaakaasupaHARNAGARIOSIS आगमों में सिद्धपद का विस्तार में यह भाव पूर्व कर्मों के 'बांधता है। अपना लेता बक, कायिक जानकर वह चरणमूलक जो संचित ज्वाला को । है, अच्छी ना? ऐसा हाँ समझने का स्थान दार्थों एवं सुखों का __भोग पतन का हेतु है। मानव की यह दुर्वलता है, ज्यों-ज्यों भोग्य पदार्थ उसके समक्ष उपस्थित होते हैं, वह अपने स्वरूप का भान भूल जाता है और अविवेक से अंधा बन जाता है। उनमें आसक्त, उपलिप्त हो जाता है। इसलिये सूत्रकार ने इस विषय को और अधिक दृढ़तापूर्वक ज्ञापित करने हेतु कहा है कि जो मुमुक्षु जन स्त्रियों का सेवन नहीं करते, कामभोग से दूर रहते हैं, वे सहज ही मोक्ष-पथ का अवलंबन कर लेते हैं- मोक्षगामी होते हैं क्योंकि वे जब भोगों से हट जाते हैं तो क्रमश: कर्म-बंधन से मुक्त होते जाते हैं। भवभ्रमण के प्रति उनमें अरुचि-भाव उत्पन्न हो जाता है। एक मात्र मोक्ष ही उनके मन में बस जाता है। जो साधक-सांसारिक, भौतिक जीवन को पीठ देकर, उससे विमुख होकर कर्मों का अंत करते हैं, उन्हें नष्ट करने में संलग्न रहते हैं, वे मोक्षमार्ग को अधिकृत कर लेते हैं- अपना लेते हैं तथा वे उत्तम धर्ममूलक कर्मों के आचरण द्वारा मोक्ष के सम्मुखीन हो जाते है। वे मोक्षाभिमुख साधक भिन्न-भिन्न प्राणियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुशासित करते हैं। धर्म की शिक्षा प्रदान करते हैं। वे वस्तुमान-संयमरूप धन से संपन्न सत्पुरुष पूजा, प्रतिष्ठा में अरुचि रखते हैं। वे अनाश्रय-आश्रय या कामना रहित होते हैं। यत- संयम में उद्यत्त रहते हैं, अपनी इंद्रियों को वश में रखते हैं, अपने द्वारा ली गई प्रतिज्ञाओं या नियमों में सदा दढ़ बने रहते हैं। काम-भोग से सर्वथा विरक्त रहते हैं, मोक्ष की दिशा में उत्तरोत्तर अग्रसर होते है। सूकर आदि जंतुओं को लुभाने के लिए बिखेरे गए नीवार-चावल के दानों की तरह वे सांसारिक भोगों को जानते हुए उनमें लीन, आसक्त नहीं होते। वे स्रोत-आसव-द्वारों को छिन्न या नष्ट कर देते हैं। वे सदा अयनाविल- राग-द्वेष आदि के मल से रहित- स्वच्छ या निर्मल होते हैं। सदैव दांतदमनशील होते हैं। वे विषय भोगों से विरक्त होते हुए अनाकुल- आकुलता रहित, स्थिरचित्त हो जाते हैं। जो अनिदृश- जिसके समान दूसरा कोई नहीं, ऐसे धर्मतत्त्व को जानता है, वह किसी भी प्राणी के साथ मन, वचन एवं कर्म द्वारा शत्रु-भाव न बढ़ाए। वैसा करने वाला ही यथार्थत: चक्षुष्मान्नेत्रयुक्त है- तत्त्व द्रष्टा है। जो साधक कांक्षा का- अभीप्सा का, कामना का या विषय-वासना का अंतवर्ती होता है- उन्हें नष्ट कर डालता है, वही अनन्य जनों के लिये चक्षुभूत है। उन्हें सही रूप में आत्म कल्याणकारी मार्ग | दिखा सकता है। जैसे क्षर- उस्तरा अपने अंत से- अंत के भाग से, किनारे से काम करता है। रथ या गाड़ी का चक्र- पहिया अपने अंत से चलता है, वैसे ही मोहनीय-कर्म का अंत ही इस संसार काआवागमन का, जन्म-मरण का अंत करता है, और मोक्ष या सिद्धत्व प्राप्त कराता है। आगे की गाथा में आगमकार साधक के लिए आहार के संबंध में विशेष जागरूक रहने की चर्चा न्य सुख प्रश्नोत्तरी लोलुपता 156 BRESS महानि
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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