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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन शुभाशुभ कर्मों के स्वरूप का बोध प्राप्त करे। वैसा बोध होने पर सहज ही उसके मन में यह भाव जागरित होगा कि वह अपने संचित कर्मों को निजीर्ण करे। वह यह जानता है कि केवल पूर्व कर्मों के निर्जरण से ही सिद्धि नहीं होगी, इसलिये वह कर्मों का नूतन-प्रवाह रोकता है, नये कर्म नहीं बांधता है। दर्शन की भाषा में यों कहा जा सकता है कि वह आसव-निरोध और संवर का पथ अपना लेता है। ऐसा होने का सीधा अर्थ है कि मुक्ति की दिशा में अग्रसर होता जाता है। इसी गाथा के आशय को स्पष्ट करते हुए आगमकार बतलाते हैं कि जो मानसिक, वाचिक, कायिक दृष्टि से नये कर्म नहीं बांधता, वही कर्मों के स्वरूप को यथावत् में जानता है। वैसा जानकर वह आत्म-संग्राम में जूझने वाला महान् योद्धा, ऐसा उद्यम- पुरुषार्थ करता है- संयम एवं तपश्चरणमूलक धर्म की आराधना में संलग्न हो जाता है, जिससे वह जन्म-मरण से मुक्ति पा लेता है। इसी तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिसके पूर्वकृत कर्म नहीं है- जो संचित कर्मों को नष्ट कर डालता है, वह महान् साधक न मरता है, न जन्मता है। जैसे अग्नि की ज्वाला को वायु लांघ जाती है, वैसे ही वह इस संसार में प्रिय- मनोज्ञ, सांसारिक भोगों को लांघ जाता है, अच्छी लगने वाली स्त्रियों द्वारा आकृष्ट नहीं होता। उनके वश में नहीं होता है। यहाँ किन्हीं अन्य भोग्य पदार्थों का नाम न लेकर केवल स्त्रियों का ही उल्लेख कैसे हुआ? ऐसा प्रश्न उपस्थित होता है। क्या स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी वस्तु भोगने योग्य नहीं है ? यहाँ समझने और ध्यान में लाने की बात यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से सभी सांसारिक भोगों में स्त्री-भोग का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। उसी के लिए मनुष्य उत्तम भवन, कोमल, सुस्वादु खाद्य-पेयादि पदार्थों एवं अन्यान्य साधनों का संग्रह करता है। इसलिए स्त्री-विषयक सुख की चर्चा करने से अन्य सभी सुखों का उसमें समावेश हो जाता है। सारांश यह है कि जो स्त्री विषयक सुख में नि:स्पह हो जाता है, उसके लिए अन्यान्य सुख सुविधाओं को छोड़ पाना कठिन नहीं है। संभव है, इसी आशय से आद्य शंकराचार्य ने शंकर-प्रश्नोत्तरी में लिखा है - 'द्वारं किमेकं नरकस्य ? - नारी।।' नरक का एक मुख्य द्वार क्या है ?- नारी। यहाँ यह भी विचारणीय है, नारी स्वयं कोई पापमय पदार्थ नहीं है। आसक्ति, मूच् से पुरुष स्वयं पाप-पंकिल बनता है और वह नारी को निमित्त बना लेता है। लुपता SANGRAHOSHANGANA १. शंकर प्रश्नोत्तरी, श्लोक-३, पृष्ठ : ६. - 155 BENIONLINE
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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