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आगमों में सिद्धपद का विस्तार
- कि न वह इ वर्तुलाकार
भेत ही है। इता, गुरुता,
नंग-भेद से आधार पर हीं होता।
इस प्रसंग में आगमकार ने अन्य तीर्थकों- मतवादियों द्वारा स्वीकृत समाधि-मार्ग की संक्षेप में चर्चा की है, और कहा है कि उनके सिद्धांत शुद्ध, तात्त्विक मार्ग से पृथक् हैं, अज्ञतापूर्ण हैं। ___ आगे आगम सम्मत मोक्षमार्ग का भाव लोक-मानस में दृढ़ता-पूर्वक प्रतिष्ठापित करने हेतु कहा गया है कि यह मोक्षमार्ग काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर ने प्ररूपित किया।
ऐसा कहकर सिद्धावस्था को, मोक्ष को प्राप्त कराने वाले धर्म के स्वरूप का संक्षेप में उल्लेख किया है। ग्रामधर्म-शब्द, रूप, रस गंधादि इंद्रिय सम्बन्धी भोगों से संयम-पथ की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा दी है। __ इस सूत्र में एक स्थान पर भावना-योग की चर्चा हुई है। भावना का आत्म-विकास की दृष्टि से | अत्यधिक महत्त्व है। उससे आत्मा के परिणाम एवं आचार- दोनों में प्राणवत्ता का संचार होता है। वहाँ कहा गया है कि जो साधक भावना-योग द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध कर लेते हैं, वे समस्त दु:खों को नष्ट कर विमुक्त हो जाते हैं। संसार से छूट जाते हैं । मुक्ति पा लेते हैं।' ____ भावना-योग के माध्यम से दुःख-विमुक्ति की जो चर्चा की गई है, उस गाथा से पूर्व यह प्रतिपादित हुआ है कि श्री तीर्थंकर प्रभु ने इसका आख्यान किया है।"
ऐसा कहकर आगमकार सूचित करते हैं कि यह तथ्य परमसत्य है, असंदिग्ध और सुनिश्चित है क्योंकि सर्वज्ञ-भाषित है।
करते हुए र्वोत्तम है, द्धावस्था
जितेंद्रिय रहे। कर्मों के -विश्राम गतिष्ठान
मोक्षाभिमुख साधक की भूमिका
सूत्रकृतांग में एक स्थान पर साधक की मोक्षाभिमुखता का विश्लेषण करते हुए संक्षेप में प्रकाश डाला गया है कि वह संसार का- भवभ्रमण का- आवागमन का अंतकर विमुक्त हो जाता है।
आगे कहा गया है- लोक में पाप को-पापाचरण के स्वरूप को जानने वाला मेधावी- प्रज्ञाशील या विवेकसंपन्न साधु पाप कर्मों को तोड़ डालता है। क्रमश: सभी कर्मों को नष्ट कर डालता है तथा नए कर्मों का बंध नहीं करता।
इस गाथा का अभिप्राय यह है कि साधक के लिए यह अति आवश्यक है कि वह ज्ञानाराधना द्वारा
। रक्षित त हैदेशा में वर्जित, । सिद्ध
१. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथमथुतस्कंध, अध्ययन-११, गाथा-२५-३१, पृष्ठ : ३९५. २. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथमश्रुतस्कंध, अध्ययन-११, गाथा-३२-३८, पृष्ठ : ३९७. ३. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथमधुतस्कंध, अध्ययन-१५, गाथा-५, पृष्ठ : ४४२, ४४३. . ४. सूत्रकृतांग-सूत्र, प्रथमश्रुतस्कंध, अध्ययन-१५, गाथा-१-४, पृष्ठ : ४४२.
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