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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन करते हुए कहते हैं कि संयम के उपकरणभूत देह को चलाने के लिए आहार अत्यावश्यक है। धीर-सहिष्णु, तितिक्षा - परायणसाधक अंतप्रांत- अनुद्दिष्ट तथा आत्मसंयमन पूर्वक गृहस्थों द्वारा दिये या शेष रहे आहार का सेवन करते हैं, वे इसी क्रम से संसार का अंत करते हैं। इसे मनुष्य लोक में अथवा गए आर्य-क्षेत्र में धर्माराधना करते हुए संसार से मुक्त हो जाते हैं, छूट जाते हैं। । मोक्ष के साधना पथ को जानने के लिए तत्त्व-ज्ञान आवश्यक है, जो स्वाध्याय से प्राप्त होता है । कहा है “जैनागम में स्वाध्याय को मोक्ष का परम अंग कहा गया है । प्रत्युपेक्षणा, प्रमार्जना, भिक्षाचर्या, वैयावृत्य आदि संयम के असंख्य व्यापारों में से किसी भी योग में लीन जीव प्रति समय असंख्य भवों के कर्मों का क्षय करता है, तो भी स्वाध्याय - योग में लीन व्यक्ति स्थिति एवं रस के द्वारा कर्मों का विशेष रूप से क्षय करता है । " २ | मोक्ष प्राप्ति की सुलभता : दुर्लभता सूत्रकृतांग में एक स्थान पर आर्य सुधर्मा स्वामी जंबूस्वामी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि मैंने भगवान् महावीर की धर्मदेशना में यह श्रवण किया है कि मनुष्य ही रत्नत्रय की आराधना द्वारा कर्मों | का क्षय कर निष्ठितार्थ- कृतकृत्य होते हैं, मोक्ष या सिद्धत्वरूप अपना परमलक्ष्य साध लेते हैं । अथवा कई, जिनके संपूर्णत: कर्मों का क्षय नहीं होता, कुछ कर्म अवशिष्ट रह जाते हैं, सौधर्म आदि देवलोक में उत्पन्न होते हैं। मुक्तता या सिद्धावस्था रूप कृतकृत्यता कुछ ही लोगों को प्राप्त होती है। वह सर्वसुलभ नहीं है । यह प्राप्ति मनुष्य योनि में ही होती है, मनुष्येतर योनि में नहीं होती । I इतना विवेचन करने के बाद में आगमकार अन्यतीर्थिकों के, इतर मतवादियों के मंतव्य की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं कि कइयों की ऐसी मान्यता है कि देव ही समस्त दुःखों का अंत करता है, मनुष्य नहीं, किन्तु निर्ग्रथ-प्रवचन में ऐसा कहा गया है कि इस समुत्थित- उन्नत मानव शरीर या मानव-जन्म के बिना मोक्ष प्राप्त होना दुर्लभ है । अर्थात् मानव - योनि में ही साधना द्वारा समग्र कर्मों के नाश से मुक्ति या सिद्धि प्राप्त होती है। जो इस मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो देता है, उसे आगे जन्मांतर में संबोधि - सम्यक् दृष्टि प्राप्त होना बहुत कठिन है। १. सूत्रकृतांग- सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध, अध्ययन- १५, गाथा-६, पृष्ठ : ४४४, ४४५. २. परमेष्ठि नमस्कार, पृष्ठ १. ३. सूत्रकृतांग- सूत्र, प्रथमश्रुतस्कंध, अध्ययन- १५, गाथा - १६-१८, पृष्ठ: ४४७. 157
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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