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________________ आगमों में सिद्धपद का विस्तार जाने आचारांग-सूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के पाँचवें लोकसार अध्ययन में सिद्ध या मुक्तात्मा की चर्चा हुई है। वहाँ पहले सिद्ध पद की गरिमा, विलक्षणता, अनुपमेयता का उल्लेख है। ता। सिने लए | EEEEEEE FIE F आचारांग-सूत्र में सिद्ध का स्वरूप आचारांग-सूत्र में एक प्रसंग आता है, जहाँ आसक्ति-वर्जन के उपायों का उल्लेख है। उसके द्वारा साधक मोक्ष-मार्ग की दिशा में अग्रसर होता है। वहाँ कहा गया है कि मोक्षमार्गारूढ़ मुनि, गति-अगति, भव-भ्रमण के कारणों को परिज्ञात कर जन्म-मरण के वृत्त- चक्रोपम मार्ग का अतिक्रमण कर जाता है, मुक्त हो जाता है। सिद्धत्व पा लेता है। | आचारंग-सूत्र में मुक्तात्मा या सिद्धात्मा के स्वरूप का संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि सिद्ध- परमात्मा के स्वरूप की व्याख्या करने में सभी स्वर निवृत्त हो जाते हैं। वहाँ वाणी की गति प्रतिहत हो जाती है। शब्दों द्वारा उसका विवेचन नहीं किया जा सकता। वहाँ तर्कों द्वारा कुछ सिद्ध नहीं हो पाता। मति- मननात्मिका प्रज्ञा उसमें अवगाहन संप्रवेश नहीं कर पाती। वह बुद्धि बल द्वारा गम्य नहीं है। वह समग्र कर्म मल-विवर्जित, प्रतिष्ठान शरीर-मूल आधार से रहित है, क्षेत्रज्ञ है। विशेष श्रीमद्भगवतगीता में प्रकृति-पुरुष विवेक-योग, के अन्तर्गत्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ' शब्द का उल्लेख हुआ है। अर्जुन श्रीकृष्ण से निवेदन करते हैं कि मैं क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का तत्व जानना चाहता हूँ। उसके उत्तर में योगिराज श्री कृष्ण कहते हैं- हे कौन्तेय ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है। इसको जो जानता है, उसे ज्ञानी पुरूष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। 'मैं समस्त क्षेत्रों का, देहों का ज्ञाता हूँ,' जो इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानता है, उसका | जानना ही यथार्थ ज्ञान है। ऐसा मेरा अभिमत है। _इस प्रसंग में गीताकार ने क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विस्तार से वर्णन किया है, जो स्वतंत्र रूप से पठनीय __EEEEF आचारांग में हुए उल्लेख के साथ, गीता में आया हुआ वर्णन तात्त्विक दृष्टि से तुलनीय है। दोन ही स्थानों में क्षेत्रज्ञ शब्द का प्रयोग आत्मा के शुद्धस्वरूप के आशय में हुआ है। १. आचारांग-सूत्र, प्रथमश्रुतस्कंध, पंचम-अध्ययन, उद्देशक-६, सूत्र-१७६. २. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-१३, श्लोक-१-४, पृष्ठ : ४५५-४५८. 152 RST PASSEUARTERTISE HORS E
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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