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सिध्वपद और णमोक्कार-आराधना
हैं, वे संसारावस्थित है तथा जो कर्ममुक्त हैं, मोक्षावस्थित है। मूलस्वरूप की दृष्टि से दोनों में भेद नहीं है। उपनिषद् का चौथा महावाक्य इसी आशय का प्रतिपादक है।
जब जीव अपने शुद्ध स्वरूपात्मक ज्ञान से आतेप्रोत हो जाता है, तब उसकी भेद दृष्टि मिट जाती के अभेद का ज्ञान हो जाता है । वह परम ज्ञानात्मक दशा परमात्मभाव या है | उसे आत्मा-परमात्मा ब्रह्म
है । इसीलिये प्रज्ञान को बह्मरूप में प्रतिपादित किया गया है। दूसरा वाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' इस भाव का द्योतक है कि जब जीव प्रज्ञानावस्था में परिणत हो जाता है, उसे अपने शुद्ध स्वरूप का, परमात्मभाव का साक्षत्कार होता है और तब 'मैं बह्म या परमात्मा हूँ', ऐसी आंतरिक अनुभूति होती है।
वास्तव में परमशुद्धावस्था
में तो परमात्मा ही है। तीसरा 'तत्त्वमसि' यह वाक्य आत्मा को | संबोधित कर कहा गया है। अविद्या युक्त जीव अपने को ब्रह्म से भिन्न मानता है। यह उसका अज्ञान | है। उसी अज्ञान को मिटाने के लिये यह महावाक्य है, जिसमें जीव को संबोधित कर यह ज्ञापित किया गया है कि तुम वही हो, जो परमात्मा है। अपने को उनसे भिन्न, हीन, तुच्छ मत समझो। चौबे महावाक्य में तीनों वाक्यों का निष्कर्ष है।
नवकार मंत्र 'तत्त्वमसि' द्वारा जीव को स्मरण कराता है, उद्बोधन देता है कि हे जीव ! तुम | अपने को अन्य क्यों समझते हो ? तुम तो वास्तव में परमात्मा हो । कर्मों के आवरणों ने तुम्हारे शुद्ध स्वरूप को आच्छादित कर रखा है, उन आवरणों को हटा दो। तुम्हें 'तत्त्वमसि' की सहज अनुभुति प्राप्त होगी ।
अनुचिंतन
टेलिफोन या दूरभाष की प्रक्रिया आज के विज्ञान की जगत को अद्वितीय देन है किन्तु णमोक्कार मंत्र मूलक आध्यात्मिक प्रक्रिया की उससे भी बड़ी देन है। टेलीफोन की प्रक्रिया से तो हम भौतिक | जगत् के व्यक्तियों तक ही अपने वार्तालाप का संपर्क जोड़ सकते हैं। भौतिक वस्तुएँ समस्त लौकिक | संबंध, चर्चाएं, विचार-विमर्श, इनमें से कुछ भी शाश्वत नहीं है । सब विनाश युक्त हैं। उन्हें क्षणभंगुर कहा जाये तो भी अत्युक्ति नहीं होगी ।
मोहवश, लोभवश, भौतिक उपलब्धियों को हम बहुत बड़ा मानते हैं किन्तु वास्तविक दृष्टि से | उनमें कोई बड़प्पन नहीं है । बड़पन्न या महत्त्व तो उस वस्तु का होता है जो शाश्वत हो, शांतिप्रद हो, श्रेयस्कर हो ।
संसार के किसी बड़े से बड़े राष्ट्रनायक, धनकुबेर या सत्ताधीश से संपर्क साध लेने, वार्तालाप कर | लेने से ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं होगा, जो आध्यात्मिक निधि का रूप ले सके । उन तथाकथित बड़े
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