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________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन । ROOR इस प्रकार णमो अरिहंताणं पद द्वारा साधक परमात्मा के साथ डायरेक्ट लाईन द्वारा जुड़ सकता है। टेलिफोन में वार्तालाप करते समय कभी-कभी 'डायरेक्ट लाईन' व्यस्त भी आती है परंतु परमात्मा की डायरेक्ट लाईन कभी व्यस्त (Engage) नहीं होती। टेलिफोन में बिना कहीं रूकावट के सीधी बात हो सकती है इसे हॉटलाईन (hot-line) कह सकते 'णमो अरिहंताणं' पद परमात्मा के साथ सीधा संपर्क साधने की दिव्य-कला या हॉटलाईन है।। परमात्मा के साथ डायरेक्ट लाईन में क्या बातचीत होती होगी ? यह प्रश्न एक मुमुक्षु के मन में उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। सांसारिक देव उपासना करने वालों की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं किन्तु वे देव अपना स्वयं का स्वरूप उपासकों को नहीं देते। जबकि परमात्मा अरिहंत भगवान् 'निजस्वरूप के दाता हैं। जब भक्त अपना तन, मन, धन, वचन तथा भाव, जो कुछ उसे प्राप्त है, वह सब परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देता है तो परमात्मा उसके बदले भक्त को परमात्मा-पद प्रदान करते हैं। यह आदान-प्रदान के नियम (Law of receiving and giving) का प्रतीक है। इसी कारण अरिहंत | प्रभु अपने स्वरूप के दाता कहे जाते हैं। भक्त जब ‘णमो अरिहंताणं' कहता है, तब भगवान् 'तत्त्वमसि'- जिसको तू नमस्कार करता है, वह तू ही है, ऐसा भाव प्रदान करते हैं।' । “तत्त्वमसि" यह वाक्य उपनिषद् वाङ्मय में सुप्रसिद्ध है। वहाँ चार महावाक्यों का उल्लेख है(१) प्रज्ञानं ब्रह्म (२) अहं ब्रह्मास्मि (३) तत्त्वमसि (४) अयमात्मा बह्म। रे इन चार वाक्यों में पहला वाक्य प्रज्ञान या विशिष्ट ज्ञान का सूचक है। ज्ञान विशिष्टता तब प्राप्त करता है, जब वह परिपूर्ण होता है। परिपूर्ण ज्ञान द्वारा ही आत्मा-परमात्मा का रहस्य समझा जा सकता है। जीव शृद्धावस्था में बह्म है। इसलिये अपने आप को वैसा ही समझे। ये चारों महावाक्य जीव और बह्म के ऐक्य के सूचक हैं। जैन दर्शन की भाषा में कर्म-मुक्त आत्मा और कर्म-युक्त आत्मा का रहस्य इनमें समाया हुआ है। कर्म-मुक्त और कर्म-युक्त आत्मा शुद्धस्वरूप की दृष्टि से सर्वथा एक समान है। जो कर्म-युक्त १. जीवननी सर्वश्रेष्ठकला श्री नवकार, पृष्ठ : ५६-५८. २. शुकरहस्य-उपनिषद्, कृष्णयजुर्वेदीय, उपनिषद्-अंक, (कल्याण विशेषांक, १९४९, खण्ड-२). Man u saitaniantrwsnew 143 RAN PAN RAMMAR EISHAADIMANA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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