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________________ RANASI णमो सिद्धाण पद : समीक्षात्मक परिशीलन । विकार-विजय में मंगलसूत्रों का सार्थक्य विषय, कषाय-जन्य अशांति और व्यथा को दूर करने हेतु विज्ञ महापुरूषों ने अनेक प्रकार के विधानों का प्रतिपादन किया है। तरह-तरह के मंगल-वाक्यों की प्रतिष्ठा की है तथा जीवन में शांति एवं सुख प्राप्त करने के लिये ज्ञान, भक्ति एवं कर्म के मार्गों का प्रतिपादन किया हैं। वे मंगल-वाक्य एक चिरस्थायी स्तर एवं भाव को लिये हुए हैं। विकारों पर विजय प्राप्त करने हेतु ये मंगल-वाक्य दृढ़ आलंबन होते हैं तथा उनसे आत्म-कल्याण की भावना उनमे संस्फुरित होती है। संसार के सभी धर्म-संप्रदायों के प्रवर्तकों ने विकारों को जीतने तथा साधना के मार्ग पर अग्रसर होने के लिये अपनी मान्यताओं के अनुसार कुछ मंगल-वाक्यों की संरचना की है। विविध प्रकार के मंगल-वाक्य कहाँ तक अन्त:करण में संप्रविष्ट होकर प्रकाश प्रदान कर सकते हैं, यह विचार का विषय है। जैन मंगल-वाक्य या णमोक्कार मंत्र में वंदन हेतु जिन पाँच परमेष्ठी पदों को सन्निहित किया है, वे गुण निष्पन्नता की दृष्टि से अत्यंत ऊँचे हैं।वे सर्वथा व्यापक एवं सार्वजनीन हैं। वहाँ किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। वहाँ तो उन महापुरूषों का उल्लेख हैं, जिन्होंने साधना द्वारा अपने को इतना ऊँचा उठा दिया कि वे केवल एक परंपरा की सीमा में रहते हुए भी जन-जन के लिए परमकल्याणकारी रहे हैं। जैन मंगल-वाक्य ऐसे नमनीय महापुरूषों के सूचक हैं, जो राग-द्वेष आदि से सर्वथा रहित होने के कारण सब के लिये, समस्त विश्व के लिये परमपूज्य हैं। । णमोक्कार : परमात्म-साक्षात्कार का निर्बाध माध्यम आज विज्ञान का युग है। सभी क्षेत्रों में विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है तथा उत्तरोत्तर प्रगति करता जा रहा है। दूरभाष या टेलिफोन के रूप में जनसंपर्क का एक विलक्षण माध्यम आज लोगों को प्राप्त है। भारतवर्ष में बैठा हुआ व्यक्ति अमेरिका में विद्यमान अपने मित्र या संबंधी से सीधी बात कर सकता है। इस दूरभाष की प्रक्रिया में उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है। लक्षित व्यक्ति के साथ सीधा वार्तालाप करने हेतु टेलिफोन कंपनियों ने सीधी संपर्क लाईनों की व्यवस्था की है, जिसके फलस्वरूप जिस व्यक्ति से बात करना चाहे, सीधे उसी से बात कर सकते हैं। वहाँ तीन प्रकार के नियमों का या व्यवस्था क्रमों का पालन आवश्यक है। 141
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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