SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशिष्ट-प्रेम • हए सरोवर आत्मा के प्रतीति न हो होगा । प्राप्त होने के लिए न करने के वश्यक है। ति हार्दिक का अथवा ाङ्मुखत्ता, य अभ्यास या अभ्यास कर उनमें जाती हैं. कार मंत्र वह अपने ग-द्वेष उत्त्वगुण 10 सिध्यपद और गमोक्कार-आराधना 1 प्रीत्यात्मक, रजोगुण अप्रीत्यात्मक तथा तमोगुण विषादात्मक है। प्रीत्यात्मकता का तात्पर्य सुखात्मकता | अप्रीत्यात्मकता का अर्थ अप्रीति या दुःखजनक है तथा विपादात्मकता का अभिप्राय मोहात्मकता है। सत्त्वगुण प्रकाशमय है। रजोगुण प्रवृत्तिमय और तमोगुण अवरोधमय है अर्थात् प्रकाश, क्रिया और स्थिति के ये कारण हैं । सत्त्वगुण - लघु और प्रकाशक है। जब वह उत्कट होता है तब अंगों में हलकापन होता है। बुद्धि प्रकाश युक्त या प्रखर होती है । इंद्रियों में प्रसन्नता होती है । रजोगुण- उपष्टंभक एवं चल है। उपष्टंभक का अर्थ उत्तेजक है चल का अर्थ चंचल है। जिसमें रजोगुण का आधिक्य होता है, उसका चित्त चंचल होता है। तमोगुण गुरु- भारी और आवरक है जब तमोगुण की अधिकता होती है, तब शरीर के अंग भारी होते हैं। इंद्रियाँ आवृत होती हैं । वे अपना कार्य करने में असमर्थ होती हैं । यह संसार इन तीनों गुणों के समन्वय का प्रतीक है। इसके लिये विद्वानों ने दीपक का उदाहरण दिया है। दीपक में तेल, अग्नि और बाती ये तीनों वस्तुएं होती हैं। ये तीनों परस्पर विरुद्ध हैं किन्तु | उनके सहयोग या समन्वय से दीपक प्रकाश उत्पन्न करता है उसी प्रकार सत्त्वगुण, तमोगुण और रजोगुण समन्वित होकर कार्य निष्पन्न करते हैं । प्रत्येक व्यक्ति में न्यूनाधिक मात्रा में तीनों गुण विद्यमान रहते हैं जब तमोगुण की अधिकता | होती है, तब व्यक्ति में अज्ञानमूलक वृत्तियों का आधिक्य होता है। जब रजोगुण अधिक मात्रा में होता है, तब व्यक्ति में रागात्मकता और चंचलता का आधिक्य होता है। जब सत्त्वगुण की प्रधानता और अधिकता होती है, तव जीवन में ज्ञान, वैराग्य, धर्म आदि उत्तमगुण विकसित होते हैं । पवित्र, उच्च | और साधनामय जीवन के लिये यह आवश्यक है कि सत्त्वगुण का विकास हो । रजोगुण और तमोगुण सत्त्वगुण से दबे रहें। यदि ऐसा होगा तो चित्त में पापपूर्ण वृत्तियाँ उदित नहीं होगी। यदि रजोगुण का भाव बढ़ता जाएगा तो धार्मिकता एवं पवित्रता का भाव क्षीण, हीन और दुर्बल होता जाएगा। णमोक्कार मंत्र की आराधना से सत्त्वगुण प्रबल होता है । सत्त्वगुण के प्रबल होने से जीवन| वृत्तियों में समग्र परिवर्तन हो जाता है जीवन उज्ज्वल और निर्मल बन जाता है। चित्त सात्त्विक भावों से ओतप्रोत रहता है। क्रिया-कलाप में उत्तमता आ जाती है। सत्त्वगुण प्रधान व्यक्ति धर्म मार्ग में उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। लौकिक सुखों की कामना घटती जाती है। आगे जाकर उसकी वृत्ति आत्मोन्मुखी बन जाती है। इस प्रकार णमोक्कार मंत्र साधक को लौकिक सुख से आगे बढ़ाता हुआ उस परम आध्यात्मिक सुख के साथ जोड़ देता है, जो लोकोत्तर है, | जिसमें नित्य एवं शाश्वत सुख में सिद्ध भगवान् निमग्न हैं । 140
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy