SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन उसके स्मरण आदि में आत्मा को तदाकार बनाना वांछित है। साथ ही साथ शुद्ध-भाव, विशिष्ट-प्रेम और दिव्य-भक्तिपूर्वक परमेष्ठियों का स्मरण करना अपेक्षित है। जैसे जल से पूर्णत: भरे हए सरोवर में घड़े को डुबोते हैं, उसे पानी से भरते हैं, उसी प्रकार परमेष्ठियों का परम तेज अपनी आत्मा के प्रदेशों में प्रतिष्ठापित करने के लिये अपने चित्तरूपी घड़े को डुबोना होगा, जब तक यह प्रतीति न हो जाय कि परमेष्ठी और मेरी आत्मा भिन्न नहीं है, तब तक अपने चित्त को विलीन करना होगा। जैसे व्यायाम करने वाला थोड़े समय के लिए ही व्यायाम करता है परंतु उसके द्वारा प्राप्त होने वाला बल और स्फूर्ति चौबीस घंटे काम आती है, वैसे ही परमेष्ठियों के साथ थोड़े समय के लिए विधिपूर्वक निष्पन्न-मिलन जीवन के विकास में प्रतिक्षण उपयोगी सिद्ध होता है। ___ जब-जब चित्त तमोवृत्ति से आवृत होकर उद्विग्न बनता है, तब-तब चित्त को प्रसन्न करने के लिये अंत:करण में विराजमान परमेष्ठियों के तेज में चित्त को तन्मय करने का अभ्यास आवश्यक है। क्योंकि यह दु:ख-नाश और सुख-प्राप्ति का सरल, निर्बाध और निर्भय उपाय है। __श्री पंच-परमेष्ठियों के साथ चित्त की एकाग्रता सिद्ध करने के लिये देव और गुरु के प्रति हार्दिक बहुमान, निर्दोष-निर्मल जीवन, सर्वत्र औचित्य का पालन, पवित्र वातावरण, ब्रह्म-मुहूर्त का अथवा तीनों संध्याओं का पवित्र समय, स्थिर आसन, भावनाओं का संबल, विषयों से चित्त की पराङ्मुखता, ध्येय की एकाग्रता तथा निश्चित किये हुए समय में नियमपूर्वक आदर एवं सत्कार के साथ अभ्यास करना आवश्यक है। श्रद्धा, उत्साह और शांतिपूर्वक इस विषय में पुन:-पुन: निरंतर किया गया अभ्यास परमेष्ठियों के साथ एकता एवं तन्मयता स्थापित कराने में बहुत सहायक बनता है। उपरोक्त प्रकार से हृदय-कमल आदि किसी एक ध्येय स्थान में परमेष्ठियों की कल्पना कर उनमें चित्त को स्थापित करने से अपने मन में अनेक प्रकार की प्रतीतियाँ उत्पन्न होती हैं। णमोक्कार मंत्र परम तेज-पूंज है। इसकी आराधना से वे सभी दुर्लभ उपलब्धियाँ हो जाती हैं, जिनकी मानव अपने ऐहिक, पारलौकिक सुख और शांति के लिए कामना करता है। णमोक्कार मंत्र की उपासना, आराधना, साधना, जप एवं अभ्यास में ज्यों-ज्यों मानव अग्रसर होता जाता है, वह अपने जीवन में दिव्य-आलोक का दर्शन करता है। SARID MAGAR W AIHARIWONOMINAR विमर्श सांख्य-दर्शन में सत्त्व, तमस् और रजस् तीन गुण माने गए हैं। सुख-दुःखात्मक, राग-द्वेषमोहात्मक तथा कहीं-कहीं त्याग-वैराग्यात्मक संसार इन तीनों गुणों का परिणाम है। सत्त्वगुण १. योगशास्त्र, प्रकाश-६, श्लोक-८, पृष्ठ : २२१. २. सद्गुण साधना, पृष्ठ : ७६. 139
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy