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सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना
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सा है कि उससे चित्त में आह्लाद, प्रसन्नता, प्रकाश, प्रमोद आदि उत्तम भाव उत्पन्न होते हैं। वैसे भाव उत्पन्न होने पर वहाँ फिर दु:ख टिक नहीं सकता।
साख और द:ख बाहर से नहीं आते किन्तु ये दोनों चित्त के धर्म हैं। इसलिये ये चित्त के भीतर की प्रगट होते हैं। दोनों का स्वभाव प्रकाश और अंधकार की तरह परस्पर विरोधी है। जहाँ प्रकाश बोला है वहाँ अंधकार ठहर नहीं सकता। जहाँ अंधकार होता है, वहाँ प्रकाश विद्यमान है. ऐसा नहीं कहा जा सकता ।
एक ही समय में दोनों भाव प्रधानता पूर्वक एक साथ टिक नहीं सकते। अत: पंच-परमेष्ठियों के आलंबन से जब चित्त सत्त्व-प्रधान बनता है, तब उसमें एक ऐसा सामर्थ्य प्रगट होता है कि उसके प्रभाव से हानिप्रद निमित्त, लाभप्रद बन जाते हैं।
सामान्य उपद्रव से लेकर मरणांत उपसर्ग पर्यंत कोई ऐसा प्रसंग नहीं है, जो स्थिर, शांत-चित्त-युक्त व्यक्ति के लिये लाभकारी न बन सके। यद्यपि ये उपद्रव, विघ्न कष्टप्रद एवं शोकप्रद होते हैं किन्तु चित्त की स्थिरता और प्रशांतता उनको परिवर्तित कर देती है। वे कष्ट और शोक के स्थान पर सुखकारक एवं लाभदायक बन जाते हैं।
इससे विपरीत स्थिति यह है कि जिसका चित्त स्थिर नहीं है, जिसकी बुद्धि स्थिर नहीं है, उसके लिये उच्च से उच्च कहा जाने वाला आलंबन भी लाभप्रद नहीं बनता। उत्तम आलंबनों के पुन:-पुन: अभ्यास से चित्त की स्थिरता साध्य है। उनके बिना वैसा होना संभव नहीं है। साधना के मार्ग में शुभ आलंबनों के संदर्भो में चित्त की स्थिरता बहुत उपयोगी है, इसलिए आत्म-विकास के इच्छक जीवों को उत्तम आलंबनों के संबल द्वारा दिन-प्रतिदिन अपनी योग्यता प्रगट करने हेतु अप्रमत्त रहना बहुत आवश्यक है। मानव-जीवन में करने योग्य यह एक महान् कार्य है। जितने प्रमाण में योग्यता प्रगट होती है, उत्तने प्रमाण में आत्म-विकास की दिशा अग्रसर होती रहती है।
___परमेष्ठियों का स्मरण, जप, ध्यान आदि द्वारा चित्त सात्त्विक बनता है। सात्त्विक चित्त अनेक गुणरूपी रत्नों की खान है। शील और सत्त्वगुण से परिपूर्ण पूर्ववर्ती महापुरुषों के पवित्र चरित्र को जब सुनते हैं तो आज भी हम रोमांचित हो उठते हैं। अनेक महात्माओं के ऊर्ध्वगमन या आत्म-विकास में ऊँचे उठने के दृष्टांत हमारे लिये अवलंबन भूत बनते हैं।
__पंच-परमेष्ठी के आलंबन से चित्त जब सत्त्व प्रधान बनता है, तब उसमें करुणा, मैत्री, प्रेम, कृतज्ञता, परोपकारिता, विनम्रता आदि अनेक गुण प्रगट होते हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि पंच-परमेष्ठियों का स्मरण अर्थात अमुक संख्या में मात्र ऊपर-ऊपर से णमोक्कार मंत्र गिनना ही अभिप्राय नहीं है किन्तु अपने चित्त में महामंत्र की स्थिरता पूर्वक स्थापना करना आवश्यक है। पनश्च
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