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________________ STATE BARAHIM ee णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन । जन शासन-तंत्र द्वारा नीति-निर्धारण-विषयक नियमों को प्राप्त तो करते हैं, पर जहाँ भी मन में कोई दुर्बलता आती है, वे गलती कर जाते हैं, अपराध कर जाते हैं। चोरी, तस्करी, धोखा, लूटपाट, हत्या आदि इसी के परिणाम हैं। ऐसी स्थिति में नियमन, विकार-वर्जन, नीतिपूर्वक समाज-संचालन आदि हेतु न्यायतंत्र की आवश्यकता होती है। विभिन्न राष्ट्रों में स्थापित न्यायालय इसी के प्रतीक हैं। ग्राम-पंचायत के अंतर्गत न्याय-सभा से लेकर राष्ट्र के सर्वोच्य न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) तक न्यायपालिकाओं का विस्तार है, जो सत्यासत्य का सम्यक् परीक्षण कर निर्णय देती हैं। न्यायपालिकाएं जिस प्रकार शासितों के- प्रजाजनों के कार्यों का, अपराधों का निर्णय करती है, उसी प्रकार उनको शासकों द्वारा किये गये कार्यों के औचित्य, अनौचित्य का निर्णय देने का अधिकार भी प्राप्त है। ऐसा होने से ही राष्ट्र में नीति ,सदाचार और समुचित व्यवहार जीवित रह सकते हैं। इसलिये न्यायतंत्र का बहुत बड़ा महत्त्व है। न्यायतंत्र के संदर्भ में यहाँ णमोक्कार मंत्र पर विचार किया जा रहा है। णमोक्कार मंत्र तो एक विराट् तत्त्व है। इसको जहाँ चाहें घटित करें, यह सर्वथा संपूर्ण, परिपूर्ण सिद्ध होता है। इसमें कहीं किसी भी प्रकार की न्यूनता या मंदता नहीं है। जिस तरह न्यायतंत्र कानून के सिद्धातों पर टिका हुआ है, उसी प्रकार णमोक्कार मंत्र कर्म-सिद्धांतों के तंत्र पर आश्रित है। कर्मवाद का न्याय तो इतना ऊँचा है, जहाँ कानून का न्याय पहुँच ही नहीं सकता। जैसे एक व्यक्ति को मारने की अपेक्षा हजार व्यक्तियों को मारनेवाला हजार गुना दोषी है किंतु कानून के पास दोनों की सजाओं में भेद करने का कोई मार्ग नहीं हैं पर तीर्थंकर देव द्वारा प्रतिष्ठापित न्यायतंत्र, जो कर्मवाद पर आश्रित है, इन दोनों में निश्चय ही भेद करता है। वह भेद हिंसाजन्य कर्म द्वारा आत्मा के साथ लगने वाले पापमय पद्गलों की न्यूनता-अधिकता के रूप में है। वहाँ हजार गुणा अपराध करने वाला छूटता नहीं। जन्म-जन्मांतर में दंड भोगता जाता है, यह सच्चा न्याय-तंत्र है।। कानून का यह सिद्धांत है- यदि प्रमाणादि न मिलने पर अपराधी बिना सजा के छूट जाए तो कोई बात नहीं पर निरपराधी को कभी दंड न मिले। सिद्धांत तो बहुत अच्छा है किंतु न्यायपालिकाओं के न्यायाधीशों के ज्ञान और परीक्षा की एक सीमा है। कभी-कभी उनके निर्णय उनके अपने दृष्टिकोण से सही होते हुए भी इस सिद्धांत के प्रतिकूल भी हो सकते हैं किंतु कर्मवाद के कानून में ऐसा होने का अणुमात्र भी स्थान या अवकाश नहीं है। णमोक्कार मंत्र के पाँचों पद कर्मवाद के सिद्धांतों पर टिके हुए हैं। 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' के आत्मघोष के साथ साधक णमोक्कार के पहले पद में आता है। वहाँ सभी सावद्यपापपूर्ण कर्म छूट जाते हैं। वह अपने पथ पर आगे बढ़ता जाता है। यह भी संभव है-- वे ज्ञानातिशय, चारित्रातिशय और पुण्यातिशय आदि के कारण आचार्य और उपाध्याय का पद प्राप्त कर लें। उत्तरोत्तर । 133 SHRAM SRAE ANTERASER
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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