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________________ सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना । किसी सर्वोत्तम णमोक्कार : सकाम निर्जरा का पथ निर्जरा की निष्पति दो प्रकार से होती है अर्थात् आत्म-प्रदेशों के साथ संश्लिष्ट कर्म-पुद्गल दो प्रकार से झड़ते रहते हैं। बिना संकल्प-व्रत या प्रत्याख्यान के घोर आतापना आदि कष्ट सहने से जो कर्मों का निर्जरण होता है, उसे अकाम निर्जरा कहा जाता है। उसको अकाम इसलिये कहा जाता है कि वैसा करने वाले प्राणी की मोक्ष में अभिलाषा नहीं होती। वह निर्जरा मोक्षनुगामिनी नहीं होती। | जहाँ मोक्ष की अभिलाषा, संकल्प या विरति-भावपूर्वक तपश्चरण आदि किया जाता है, उसे सकाम निर्जरा कहते हैं। वह मोक्षानुगामिनी होती है। उससे विशेष रूप में कर्मक्षय होता है। सकाम निर्जरा के लिये निराग्रह-वृत्ति, मार्गानुसारी-बुद्धि, करुणाशीलता, जितेंद्रियता, न्यायपरायणता आदि गुणों का विकास आवश्यक है। ऐसा होने पर जीव अपूर्वकरण द्वारा ग्रंथी-भेद कर सम्यक-दर्शन प्राप्त करता है। तब वह भावपूर्वक परमेष्ठी नमस्कार या णमोक्कार स्मरण का अधिकारी बनता है। णमोक्कार की आराधना से उसका अन्तर्भाव उत्तरोत्तर उज्ज्वलता प्राप्त करता जाता है। वह विरतिपूर्वक स्वाध्याय, तपश्चरण आदि में अग्रसर होता जाता है। यह सकाम निर्जरापथ है। णमोक्कार द्वारा वह प्रशस्त बनता जाता है। त है। उपदेश के पथ कर देव -प्रसार आदि वह इन कल्याण पी नहीं ज्योतिष-शास्त्र की दृष्टि से णमोक्कार मंत्र का मूल्यांकन यह जगत् अनेक ग्रह, नक्षत्र, ज्योतिपिंड, भूखंड, पर्वत, और समुद्र आदि से परिव्याप्त है। सूर्य, चंद्र आदि विभिन्न ग्रहों-नक्षत्रों का अपना-अपना गतिक्रम हैं, जिनसे वे संचालित रहते हैं। मनुष्य क्षेत्र कर्मभूमि है। वहाँ निवास करने वाला मानव अपने-अपने क्रिया-कलापों में संलग्न है। जैन-दर्शन के अनुसार सांसारिक जीव अनादि काल से कर्मबद्ध हैं। उनमें जो भव्यत्व-युक्त हैं, वे सुसंस्कार और सुसंयोगवश धार्मिक जीवन में रुचि लेते हैं। अभव्य-जीव मोक्ष-मार्ग में उद्यत नहीं होते। इस प्रकार यह जगत् अनेक विचित्रताओं से परिपूर्ण है। मनुष्यों के जीवन में जो घटित होता है, उसका मुख्य आधार कर्मों का औदयिक-भाव है। पुनश्च मानव अपने गंतव्य-पथ पर उद्यत रहता है, कर्मशील रहता है। मानव इतर जागतिक पदार्थों के साथ विविध रूप में संपक्त है। पुद्गल-परमाणुओं के विशेष स्वरूप, स्वभाव, प्रभाव आदि द्वारा उसका ग्रहात्मक जगत् से भी संबंध निष्पादित होता है। मानव-जीवन के साथ जो उसका अतीत, वर्तमान ध्याय, प नहीं । धीर, पूर्णत्व है कि १. (क) जैनेंद्र सिद्धांतकोष, भाग - २, पृष्ठ : ६२२. (ख) तत्त्वार्थाधिगम-सूत्र-८, सोपज्ञभाष्य, भाग-२, अध्याय-८, वृत्ति-सूत्र-२४, पृष्ठ : ९७३, ९७४. 120 HEREEDS SHERSHAN SINESS RAPARISTIKA
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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