SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन भगवान् का यह प्रवचन शुद्ध और निर्दोष है। दोषों से मुक्त करने वाला एवं न्याय संगत है। किसी के भी प्रति अन्यायपूर्ण नहीं है। अकुटिल है। मुक्ति प्राप्ति का सीधा मार्ग है। यह अनुत्तर सर्वोत्तम है तथा समस्त दु:खों एवं पापों को उपशांत करने वाला है। संत तुलसीदासजी ने भी कहा है - दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्राण ।। यह दोहा उत्तर भारत के जन-जन में प्रचलित है। इससे दया की सर्वव्यापकता सिद्ध होती है। णमोक्कार महामंत्र में सिद्ध पद के अतिरिक्त चारों पदों में कारुण्य का भाव सर्वथा ओतप्रोत है। अरिहंत भगवान् प्राणी मात्र को आवागमन या जन्म-मरण से छुड़ाने हेतु कृपाकर धर्म-मार्ग का उपदेश देते हैं। यह उनकी महती दया है। उसी के कारण भव्य और मुमुक्षुजन ज्ञान, दर्शन, चारित्र के पथ को अपनाते हैं। जीवन को सफल बनाते हैं। आचार्य भगवंत भी बड़े करुणाशील हैं। वे तीर्थंकर देव के प्रतिनिधि के रूप में होते हैं। तीर्थंकर भगवान् की सर्व-कल्याणकारिणी वाणी का वे प्रचार-प्रसार करते हैं। लोगों को पापपूर्ण पथ से हटाकर धर्म के पथ पर आरूढ़ करते हैं। नरक, तिर्यंच आदि अत्यधिक कष्टपूर्ण योनियों से बचाते हैं क्योंकि जो सम्यक्त्वपूर्ण धर्म का रास्ता अपना लेता है, वह इन दुर्गतियों में नहीं जाता। उपाध्याय साधु-वृंद को विद्या देते हैं। साधु-बंद विद्या का आत्म-कल्याण में और लोक-कल्याण में उपयोग करते हैं। यह उनकी बहुत बड़ी करुणा है क्योंकि सन्मार्ग को अपनाए बिना कोई सुखी नहीं होता तथा अपनी मंजिल तक पहुँच नहीं सकता। माध्यस्थ-भावना वैसे तो णमोक्कार मंत्र के पांचों पदों में व्याप्त है क्योंकि साधु, उपाध्याय, आचार्य, सिद्ध, अरिहंत ये सभी माध्यस्थ-भाव में ही रहते हैं क्योंकि इनका किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं रहता। कोई विपरीत व्यवहार करते हैं तो भी उनकी कोई विरोधात्मक प्रतिक्रिया नहीं होती। वे धीर, गंभीर बने रहते हैं किन्तु माध्यस्थ का परमोत्कृष्ट रूप हम सिद्ध भगवान् में पाते हैं। उनके लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं होता। वे तो सदा अपने परमशुद्धस्वरूप में समवस्थित होते हैं। जब पूर्णत्व प्राप्त हो जाता है, तब आत्मा की यही स्थिति होती है। मैत्री आदि चारों भावनाओं के संदर्भ में किये गए णमोक्कार के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि यह महामंत्र विश्वकल्याण, विश्ववात्सल्य और विश्वमैत्री का एक अमोघ साधन है। । 119 ANTARAS
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy