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सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना
जीवन में मित्र भाव की व्याप्ति, विश्ववात्सल्य एवं उदात्त व्यक्तित्व को जन्म देती है। ऐसे व्यक्ति के मन में सब के प्रति मित्रता, वत्सलता और सात्विक स्नेह का भाव उत्पन्न हो जाता है। निम्नांकित श्लोक का पवित्र आशय उसके रग-रग में सन्निविष्ट रहता है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
__सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुःख भाग् भवेत ।। संसार के सब प्राणी सुखी बनें। सब प्राणी निरामय- नीरोग या व्याधि मुक्त रहे। सब का | कल्याण हो, कोई दु:खी न बनें।
वास्तव में मैत्रीभाव जीवन में सात्विकता, सहृदयता सज्जनता और सौम्यता का संचार करता है। णमोक्कार मंत्र की आराधना में संप्रविष्ट होते ही साधक अशुभ से छूटता है।
__ णमोक्कार का पाँचवां पद साधु इस भाव का द्योतक है। साधु जीवन का प्रारंभ समस्त सावद्य योगों के प्रत्याख्यान से होता है। वह सब प्रकार की अशभ प्रवत्तियों का त्याग करता है। शुभ में | संप्रविष्ट होता है। शुद्धि की ओर प्रयाण करता है।
'गुणीषुप्रमोदम्'- इस पद का बहुत ही उत्तम भाव है। मैत्री-भावना की आराधना से शत्रु-भाव की निवृत्ति होती है किंतु उत्तमजनों, ज्ञानी पुरुषों एवं त्यागी संतों को देखकर प्रमुदित-आनंदित होना एक साधक के जीवन की उत्कृष्टता है क्योंकि शास्त्रों में ऐसा कहा गया है कि जो व्यक्ति गुणी-जनों के ज्ञान, चारित्र आदि गुणों का संस्तवन, प्रशंसा करता है तो उसके ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण होते हैं। | प्रमोद-भावना की णमोक्कार मंत्र के पाँचवें, चौथे, और तीसरे पद के साथ संगति है। साधु, उपाध्याय और आचार्य स्वयं गुणी होते हैं, गुणग्राही होते हैं तथा गुणी जनों को आदर देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि सद्गुणों में ही जीवन की उच्चता और महत्ता है।
'क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्'- में अनुकंपा, दया, और करुणा का पवित्र भाव है। दया धर्म का मुख्य अंग है। प्रश्नव्याकरण-सूत्र में कहा गया है -
सव्वजगजीव रक्षण दययाए पावयणं भगवया सुकहियं । संसार के समस्त जीवों की रक्षण रूप दया के लिये भगवान् ने प्रवचन किया, उपदेश प्रदान | किया। फिर आगे कहा कि यह प्रवचन आत्मा के लिये हितप्रद है। परलोक के लिये कल्याणकारी है। अर्थात् आगामी जन्मों में भद्र, शुद्ध फल के रूप में परिणत हाने से भविष्य के लिये कल्याणकारी है।
१. प्रश्न व्याकरण सूत्र श्रुतस्कंध २, अध्ययन १, सूत्र ११२.
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