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सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना
बढ़ाने में बड़ा सुख मानते हैं। ऐसे लोग भी हैं, जो बिना कारण दूसरों के प्रति विपरीत-वृत्ति अपने मन में लिए रहते हैं। मैं उनके प्रति मध्यस्थता का या तटस्थता का भाव रखू। | मध्ये तिष्ठति इति मध्यस्थं' माध्यस्थ शब्द की यह व्युत्पत्ति है। जैसे, जहाँ दो पक्ष हों, वहाँ एक ऐसा व्यक्ति है, जो दोनों में से किसी भी पक्ष में सम्मिलित नहीं होता। वह दोनों के मध्य में, बीच में रहता है। दोनों में से किसी के साथ उसका लगाव या संबंध नहीं होता, ऐसी मानसिक स्थिति को माध्यस्थता कहा जाता है, जिसका अर्थ उदासीनता या तटस्थता है।
तटस्थ शब्द भी माध्यस्थ की तरह असंलग्नता का द्योतक है। 'तटे तिष्ठति इति तटस्थ:'- के अनुसार वह तट पर अर्थात् दोनों से पृथक्-किनारे पर रहता है, उदासीन रहता है।
उच्च संस्कारी पुरुष उन व्यक्तियों के प्रति भी, जो उसके साथ विपरीत भाव रखते हैं, माध्यस्थभाव रखता है। वह वैपरीत्य को भी अन्यथा नहीं लेता। वहाँ भी तटस्थ- असंपृक्त या असंलग्न रहता है।
इन चार भावनाओं में एक ऐसे व्यक्तित्व का दर्शन होता है, जो वास्तव में सद्धर्म परायण है। णमोक्कार मंत्र के साथ इन चार भावनाओं का सूक्ष्मता के साथ परिशीलन किया जाए तो इन चारों में णमोक्कार की सम्यक् अवधारणा परिलक्षित होती है। | मैत्री-भावना का पहला प्रभाव यह होता है कि वह अशुभ से बचाती है। मैत्री के विपरीत द्वेषभावना, शत्रुत्व-भावना- इत्यादि अशुभ-कर्म-बंध में हेतु है। उपाध्याय विनयविजयजी ने शान्तसुधारस में मैत्री-भावना का विवेचन करते हुए लिखा है:--
सर्वत्र मैत्रीमपकल्पयात्मन् ! चिन्तयो जगत्यत्र न कोऽपि शत्रुः ।
कियद्दिनस्थायिनि जीवितेऽस्मिन् किं खिद्यसे वैरिधिया परस्मिन् ।। हे आत्मन् ! तू सर्वत्र मैत्री की उपकल्पना कर, अनुप्रेक्षा कर। इस जगत् में मेरा कोई शत्रु नहीं है, ऐसा अनुचिंतन कर। यह जीवन कितने दिनों तक स्थायी रहने वाला है ? इसमें दूसरे के प्रति शत्रु-बुद्धि रखकर तूं क्यों खिन्न हो रहा है ?"?
"स्वसुख प्राति तथा स्वदुःखनिवृत्ति- इन दोनों से संबद्ध तीव्र संक्लेश मिटाने का एक ही अनन्य उपाय है, 'मैं सूखी बनूं', इस इच्छा के स्थान पर मानव, 'सभी सुखी बने'- इस भावना का सेवन करे । यह मैत्री-भावना है।"
१. शान्त सुधारस, गीति- १३, मैत्री-भावना, श्लोक-५, पृष्ठ : ७४, ७५. २. तत्त्वदोहन, पृष्ठ : १३१.
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