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णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन ।
Rakesh
Sawan
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पंचपरमेष्ठि-णमोक्कार की महिमा तीनों लोक में, तीनों काल में सर्वाधिक श्रेष्ठ और अत्यंत अद्भुत है। समस्त सिद्धांतवेत्ता यह निर्विवाद रूप में स्वीकार करते हैं। लोक में जिस प्रकार धर्मास्तिकाय आदि प्रसिद्ध हैं, स्वयं सिद्ध हैं या अकृत्रिम हैं, उसी प्रकार णमोक्कार मंत्र समस्त लोक में प्रसिद्ध और स्वयं सिद्ध है।
अत्यंत गंभीर 'महानिशीथ' नामक छेद-सूत्र में इसकी अत्यधिक प्रशंसा की गई है और उसे समस्त श्रुतस्कंधों में महाधृतस्कंध के रूप में वर्णित किया गया है।
'विशेषावश्यक-भाष्य' में पंच-मंगल महाश्रुतस्कंधात्मक श्री णमोक्कार मंत्र समग्रश्रुत में व्याप्त है। पंचपरमेष्ठि नमस्कार समस्त मंगलों में प्रथम मंगल है। इससे वह समस्त श्रुत के भीतर समाविष्ट है। इतना ही नहीं नंदी-सूत्र में समस्त श्रुतस्कंधों का वर्णन करते समय पंच नमस्कारात्मक, पंच मंगल महाश्रुत स्कंध को प्रथम श्रुतस्कंध के रूप में वर्णित किया है, जिससे उसकी सर्व श्रुताभ्यंतरता- सर्व श्रुतव्यापकता स्पष्ट रूप में सिद्ध होती है।
णमोक्कार मंत्र की शास्त्रों में जो महिमा वर्णित हुई है उसे स्पष्ट करने हेतु उपाध्याय श्री यशोविजयजी गुर्जर भाषा में पद्यात्मक रूप में रचित पंचपरमेष्ठि गीता में आलंकरिक पद्धति से णमोक्कार मंत्र की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं :___पर्वतों में मेरु, वृक्षों में कल्पवृक्ष, सुगंध में चंदन, वनों में नंदनवन, मृगों में मृगपति- सिंह, पक्षियों में गरूड, तारों में चंद्र, नदियों में गंगा, रूपवानों में कामदेव, देवों में इन्द्र, समुद्रों में सयंभूरमण, सुभटों में त्रिखंडाधिपति- वासुदेव, नागों में नागराज (शेषनाग) शब्दों में आषाढ़ी मेघगर्जना, रसों में इक्ष-रस, फूलों में अरविंद (कमल), औषधियों में सुधा (अमृत), वसुधाधिपतिराजाओं में राम, सत्यवादियों में युधिष्ठिर, धैर्य में ध्रुव, मांगलिक वस्तुओं में धर्म, सामुदायिक सुख में संप- एकता, धर्म में दया-धर्म, व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत, दान में अभयदान, रत्नों में वज्ररत्न (हीरा) मनुष्यों में नीरोगी मनुष्य, शीतलता में हिम (बर्फ) तथा धीरता में धीर-व्रतधर, ये श्रेष्ठ होते हैं। उसी प्रकार मंत्रों में नवकार मंत्र सारभूत और श्रेष्ठ है। इसके द्वारा किए जाने वाला उपकार हजारों मुखों से अवर्णनीय है।
ऐसा सर्व श्रेष्ठ णमोक्कार मंत्र प्राप्त होने पर जो जीव अन्य मंत्रों की अभिलाषा रखते है, उनकी करुण-दशा का चित्रण करते हुए उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं :--
तजे जे सार नवकारमंत्र, जे अबर मंत्र सेवे स्वतंत्र । कर्म प्रतिकूल बाउल सेवे, तेह सुरतरु त्यजी आप टेवे ।।
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१. त्रैलोक्य दीपक, पृष्ठ : ४२.
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