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________________ सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना काव्य की इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि शब्द जब भावात्मक सौंदर्य या सरसता से आप्लाबित हो जाता है, तब वह काव्य कहलाता है। काव्य के प्रयोजनों में यश, धन, व्यवहार-ज्ञान, दु:ख-नाश, तत्काल परमशांति का अनुभव तथा कान्ता द्वारा प्रगट किये गए, मधुर-भाव की तरह हृदयग्राही उपदेश की चर्चा की गई है। इन प्रयोजनों में परमशांति का अनुभव- यह जो प्रयोजन बतलाया गया है, आध्यात्मिक अनुभव की दष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। णमोक्कार मंत्र काव्य कला को इसी दिशा में प्रेरित करता है। कवियों को ऐसी काव्य-रचना की प्रेरणा देता है, जिससे साधक को आध्यात्मिक साधना में उत्तरोत्तर बल मिले। जैन-कवियों ने जो काव्य-रचना की है, वह मुख्यत: अध्यात्म-भाव से आप्लावित है। प्रमुख रूप में उन काव्यों में निर्वेद प्रधान शांत-रस का निर्झर छलकता रहता है। इस प्रकार णमोक्कार मंत्र की आराधना में पाँचों ललित कलाएँ आध्यात्मिक रूप में सिद्ध हो जाती हैं। उनसे जो आनंदोपलब्धि होती है, वह सांसरिक सुखों से अनंतगुणा आध्यात्मिक सुख प्रदान करती है। यही कारण है कि कला जब आध्यात्मिकता से संवलित हो जाती है तो वह एक प्रकार से साधना का रूप ले लेती है। ऐसा होने में णमोक्कार मंत्र का अनुपम अद्भुत योगदान सिद्ध होता है। णमोक्कार मंत्र का ध्यान और प्रभाव जैन शासन के मंतव्यानुसार णमोक्कार मंत्र सब मंगलों का मूल है। समस्त जैन शासन का सार है। एकादश अंग और चतुर्दः पूर्वो का निष्कर्ष है तथा शाश्वत है। प्रवचन-सारोद्धार की वृत्ति में नवकार मंत्र के ध्यान का उल्लेख करते हुए बहुत ही सुंदर विवेचन किया गया है। “सर्व मन्त्ररत्नानामुत्पत्याकरस्य, प्रथमस्य, कल्पितपदार्थकरणैक कल्पद्रुमस्य, विषविषधर शाकिनीडाकिनीयाकिन्यादिनिग्रहनिरवग्रहस्वभावस्य, सकलजगद्वशीकरणा कृष्ट्याद्यव्यभिचारिप्रौढप्रत्त्वस्य, चतुर्दशपूर्वाणां सारभूतस्य पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारस्य महिमाऽत्यद्भुतं वरीवर्तते त्रिजगत्याकालमिति निष्प्रतिपक्षमेतत्सर्वसमयविदाम् ।" ___णमोक्कार मंत्र सब मंत्ररूपी रत्नों की उत्पत्ति का मूल स्थान है। समस्त इष्ट पदार्थों, आकांक्षाओं को पूर्ण करने में वह अद्वितीय कल्पवृक्ष है। विष, विषधर, शाकिनी, डाकिनी, याकिनी आदि उपद्रवों का वह विनाश करता है। समस्त जगत् को वश में करने में वह सर्वथा समर्थ है। प्रौढ़ प्रभाव-संपन्न है। चौदहपूर्व का रहस्य उसमें समाविष्ट है। १. काव्य प्रकाश, १, २. 112
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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