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सिध्दपद और णमोक्कार-आराधना
टयों
ललित कलाओं में नवकार का आध्यात्मिक-लालित्य
'कला' शब्द सुन्दर कृति का वाचक है। भारतीय साहित्य में कलाओं का विशद और विस्तृत रूप में विवेचन हुआ है। कलाओं के भेदाभेद भी बहुत प्रकार के माने गए हैं। उन सबमें निष्कर्ष के रूप में पाँच ललित कलाएँ स्वीकार की गयी हैं- १. स्थापत्यकला या वास्तुकला, २. मूर्ति-कला, ३. चित्र-कला, ४. संगीतकला, ५. काव्यकला।।
कलाओं का यह विस्तार स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता है। पहली स्थापत्यकला या वास्तुकला का संबंध भवन-निर्माण से है। अति प्राचीनकाल में मनुष्य भवनों या घरों में नहीं रहते थे। वृक्षों के नीचे रहते थे। ज्यों-ज्यों सूविधा, अनुकूलता और सुंदरता का भाव बढ़ता गया, त्यों-त्यों भवन-निर्माण-कला का विकास हुआ, जो आज अत्यंत विकसित रूप में प्राप्त है।
अमेरिका में एक सौ बीस मंजिलं का मकान है। भारत में भी पचास से अधिक मंजिलों तक के भवन निर्मित हो चुके हैं। वह प्राचीनकाल के मानव का सुंदरता के प्रति रहे आकर्षण का अभिवर्धित रूप है। मानव ने सोचा होगा, यहाँ मुझे अपने जीवन की लंबी अवधि व्यतीत करनी है। क्यों न उसे अत्यंत सुंदर, आकर्षक और सुहावना स्वरूप प्रदान करूँ, इसके फलस्वरूप वास्तुशास्त्र का विकास हुआ।
यह मानवीय प्रकृति है। मनुष्य कम से कम स्थूल में अधिक से अधिक सुंदरता देखना चाहता है। अत: भवन निर्माण के पश्चात् मूर्तिकला की और उसका आकर्षण बढ़ा। | संभव है, मानव के मन में आया हो, जो आज सशरीर विद्यमान है, वह कुछ समय के बाद मिट जायेगा, इसलिये क्यों न उसकी अनुकृति कर एक पाषणमयी प्रतिमा का निर्माण किया जाय, जिससे अतीत को वर्तमान में प्रतिबद्ध रखा जा सके। मानव बहुत ही भावुक प्राणी है। उसके हृदय में आगे चलकर यह भाव उद्गत हुआ हो कि जो महापुरूष सहस्त्राब्दियों-शताब्दियों पूर्व हुए, क्यों न परिकल्पना द्वारा उनके प्रतीकात्मक आकार पाषाण-निबद्ध किये जाएं। उनके दैहिक स्वरूप, संहनन, संस्थान, आकार, प्रकार व्यक्तित्व, कृतित्व आदि के आधार पर मानव ने प्रतीकों की कल्पना कर उनको पाषाणमयी शिलाओं में कलानुबद्ध किया। विश्व के विभिन्न देशों में प्रसृत मूर्तिकला के विकास का यह आदिम भावस्रोत रहा हो। - आकांक्षा, इच्छा या आशा मानव की विशेषता है। जब एक इच्छा पूर्ण हो जाती है तो फिर और कोई नूतन आकांक्षा उदित होती है। पाषाण की स्थूलता को मानव ने कुछ और सूक्ष्मता में डालने का चिंतन किया। परिणामस्वरूप पाषाण का स्थान क्रमश: भित्ति, वस्त्र तथा कागज आदि ने लिया।
मूर्तिकला का स्थान चित्रकला ने ग्रहण किया। मूर्तिकला में जहाँ आंगिक उभार, पाषण आदि द्वारा, सूक्ष्मता, स्थूलता आदि के रूप में प्रदर्शित किया जाता था, वह विविध रंगों के प्रयोग द्वारा चित्रों में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया जाने लगा। अजंता आदि के चित्र इसके साक्ष्य हैं।
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