SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन समीक्षा णमोक्कार मंत्र में ज्ञान और साधना का विराट रूप समाया हुआ है। उस पर जितनी दृष्टियों और अपेक्षाओं से चिंतन, अन्वेषण और विश्लेषण किया जाए, वह सर्वथा सार्थक सिद्ध होता है। यह जगत् जीव और अजीव का समवाय है। जीव अपने द्वारा आचीर्ण या संचित कर्मों के आधार पर विभिन्न स्थितियों में विद्यमान है। सुख-दुःखात्मक, काम-क्रोधात्मक, मोह-रागात्मक, प्रशस्त-भावात्मक, अप्रशस्त-भावात्मक, जिन-जिन दशाओं में विद्यमान होता है, तद्नुरूप पुद्गल -परमाणुओं से वह आवत होता है। पुद्गल-परमाण ही विभिन्न भोगोपभोगमय पदार्थ रूप में विद्यमान हैं। सौरमंडल या ग्रह नक्षत्र, आदि के रूप में वे विश्व में परिव्याप्त हैं। सांसारिक या कर्म-बद्ध आत्मा का उनके साथ एक ऐसा संबंध जुड़ा है, जिसकी सूक्ष्मता बाह्य नेत्रों से नहीं देखी जा सकती। वे पुद्गल-परमाणु विविध-रंगों के रूप में भी अवस्थित हैं। रंगों की भिन्नता कारणजनित है। उनके सूक्ष्मतम परमाणु अपने-अपने विशिष्ट गुणों से जुड़े हुए हैं। उन परमाणुओं का साहचर्य या उन पर एकाग्रत्व उनके गुणों के अनुरूप प्रशस्त-पवित्र या अपशस्त-अपवित्र भावों को निष्पन्न करने में सहयोगी होता है। मंत्र-वेत्ताओं ने णमोक्कार मंत्र के अंतर्गत गुणों के अनुरूप नवकार के प्रत्येक पद का वर्ण बताया है। यद्यपि वह वर्ण साधक को कुछ नहीं दे सकता, ति स वर्ण विशेष के साथ नवकार मंत्र के पद के ध्यान से एक विशेष प्रभाव उत्पन्न होता है। वहाँ मूल हेतु तो साधक के आत्म-परिणामों की निर्मलता है, किंतु बाह्य हेतु के रूप में रंगों की भी उपयोगिता है। शरीर पुद्गलमय है। रंग भी पौद्गलिक है। चेतना-केंद्र, विशुद्धि-केंद्र आदि विविध केंद्र भी शरीर में ही परिकल्पित किये गये हैं, इसलिये अनुकूल पुद्गल-परमाणु, अनुकूल फल-निष्पत्ति में सहयोगी हो सकते है। यह विषय बहुत गूढ़ है। यह अभ्यास भी सरल नहीं है। केंद्र विशेष पर रंग विशेष की कल्पना उसके साथ मंत्र पद की संयोजना, तीव्र, आंतरिक अध्यवसाय से ही सिद्ध हो सकती है। शुद्ध-भावों के साथ अभ्यास करने से यह साधना असंभव नहीं है किंतु पहले इस अभ्यास के स्वरूप को बहुत सूक्ष्मता से, विशदता से समझना आति आवश्यक है। यह अभ्यास क्रम ऐसा है, जिसमें अनुभवी गुरु का मार्गदर्शन अपेक्षित होता है। अपनी वृत्तियों को, इस दिशा में मोड़ देने में बड़ी विचक्षणता और अंत:स्फूर्ति की आवश्यकता है किंतु निश्चय ही णमोक्कार के आराधन की यह मंत्रात्मक पद्धति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। 107
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy