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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
क्लिष्टत्व दुश्रवत्व आदि दोष होते हैं। अत: जैसे मानव के जीवन में आत्मा का सबसे अधिक महत्त्व है, वैसे ही काव्य में रसों का है।
नाट्य-शास्त्र के रचयिता आचार्य भरत ने रस की निष्पत्ति का विवेचन करते हुए लिखा है'तत्र विभावानुभाव व्यभिचारि संयोगद्रसनिषपत्ति:'- अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव के संयोग से रस निष्पत्ति होती है।'
इस सूत्र पर अनेक आचार्यों ने विस्तार से विवेचन किया है। भरत ने रसों के भेद बतलाते हुए लिखा है
शृंगार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानकाः ।
वीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसा मता: ।। अर्थात् नाटक में या दृश्य-काव्य में शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत- ये आठ रस होते हैं। अन्य आचार्यों ने शांत रस को मिलाकर नौ रस माने हैं
मोक्षाध्यात्म-समुत्थस्तत्त्वज्ञानार्थ-हेतु-संयुक्तः ।
न: श्रेयसोपदिष्ट: शान्तरसो नाम सम्भवति ।। जो मोक्ष एवं अध्यात्म से समुत्थित- समुत्पन्न तथा तत्त्व-ज्ञानमूलक हेतु से युक्त होता है, आत्म-श्रेयस् के लिए जो उपदिष्ट होता है, वह शांतरस कहलाता है।
मुख्य रस तो ये नौ हैं किन्तु आगे वात्सल्यरस, भक्तिरस, प्रेयस्रस, उदात्तरस, धर्मरस आदि और भी रस माने गए हैं।
आध्यात्मिक और धार्मिक साहित्य में प्रमुख रूप से शांतरस होता है। णमोक्कार में परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया हैं, अत: वे शांतरस से परिपूर्ण हैं। वे विश्व को दुःखमय, पापमय, अज्ञानमय, मोहमय तथा शुभाशुभ कर्ममय देखते हैं। इतना ही नहीं किन्तु शुभाशुभ कर्मों को जीतने के लिये वे धर्ममय, विवेकमय, समतामय तथा विश्वात्सल्यमय जीवन जीते हैं। उसके परिणामस्वरूप वे परमात्म-पद का अनुभव करते हैं।
'आत्मा निश्चय-दृष्टि से परिपूर्ण है, ऐसा विचार तृष्णा का नाश करता है तथा आत्मा को शांतरस में ओतप्रोत बनाता है।
१. नाट्य-शास्त्र, अध्ययन-६. श्लोक-३१. २. नाट्यशास्त्र, अध्ययन-६, श्लोक- ११५, पृष्ठ : १२५. ३. आचार्य हेमचंद्र: काव्यानुशासनञ्च : समीक्षात्मकमनुशीलनम्, पृष्ठ : १२५.
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