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________________ P SOME HATTARAIPISERY णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन PARENDERSSEHOR ऋजुसूत्र सिर्फ वर्तमान काल के सूक्ष्म या स्थूल पर्याय को विषय के रूप में स्वीकार करता है। शब्द नय ऋजुसूत्र नय से भी अल्प विषय को ग्रहण करता है, क्योंकि 'ऋजसूत्र' में तो लिंग आदि का भेद हुए भी अर्थ-भेद नहीं होता। शब्द में वह माना जाता है। शब्द नय की अपेक्षा समभिरूढ़ का और समभिरूढ़ की अपेक्षा एवंभूत का विषय अत्यंत अल्प बन जाता है। ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट रूप ज्ञात होता है कि 'ऋजुसूत्र' पर्यंत चार नय अर्थ को मुख्य मानते हुए और शब्द को गौण मानते हुए, वस्तु का प्रतिपादन करते हैं। पश्चात्वर्ती शब्दादि तीन नय शब्द को मुख्य और अर्थ को गौण मानकर वस्तु का प्रतिपादन करते हैं। इन सातों नयों का समन्वय नवकार में है। एक-एक नय को लेकर जो भिन्न-भिन्न दर्शन प्रवृत्त हुए, वे सर्वांगीण नहीं है। किसी पदार्थ का एक अपेक्षा से प्रतिपादित स्वरूप सर्व अपेक्षाओं से ग्राह्य या मान्य नहीं होता। जैन दर्शन विभिन्न दृष्टियों को लेते हुए सत् का विश्लेषण करता है। वह सभी अपेक्षाओं को लेकर चलता है। नयवाद उसी का सूचक है। | नय-विज्ञान में कुशल पुरुष एक-एक नय के अभिप्राय से प्रवर्तित दर्शनों की अयथार्थता को भलीभाँति जान सकता है। इसलिये वह अपने सिद्धांत में स्थिर रह सकता है और दूसरों को स्थिर रख सकता है। TMENT S विमर्श 'सर्वसंग्राही नैगम' और 'परसंग्रह नय' सामान्य मात्र का ही अवलंबन करते हैं। इसलिये उनके अनुसार | सब कोई उत्पाद-व्यय-रहित है। शेष नय अर्थात् 'विशेषग्राही नैगम' और 'अपरसंग्रह व्यवहार' आदि दूसरे नय विशेष का ग्रहण करते हैं, इसलिये वे वस्तु को उत्पाद-व्यय-सहित मानते हैं। णमोक्कार को उत्पन्न मानने वाले नयों में विशेषग्राही नैगम, अपरसंग्रह और व्यवहार नय उसकी | उत्पत्ति के समुत्थान, वाचना और लब्धि- तीन कारण मानते हैं। समुत्थान जिससे सम्यक् उत्पत्ति हो, वह नमस्कार का आधार रूप शरीर है। वाचना का तात्पर्य गुरु आदि के पास से मंत्र का श्रवण, शिक्षण आदि से हैं। लब्धि का अभिप्राय- ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है। 'ऋजुसूत्र नय' के अनुसार समुत्थान के सिवाय केवल वाचना और लब्धि से ही णमोक्कार उत्पन्न होता है क्योंकि वाचना और लब्धि रूप कारण के न होने पर शरीर रूप कारण के विद्यमान होने पर भी णमोक्कार की उत्पत्ति नहीं होती। तीन नय एक लब्धि को ही कारण मानते है, क्योंकि लब्धि रहित अर्थात् ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय के बिना अभव्य जीव के वाचना और देह इन दोनों के १. त्रैलोक्य-दीपक, पृष्ठ : ४२-५९. 91
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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