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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
| होने पर भी नमस्कार की उत्पत्ति नहीं होती। लब्धियुक्त प्रत्येक बुद्ध आदि महापुरूषों को बाचना आदि न होने पर भी नमस्कारादि की उत्पत्ति होती है।
सत्ता मात्र ग्राही 'सर्वसंग्राही नैगम नम' और 'परसंग्रह नय' के अनुसार णमोक्कार सर्वथा सत् या विद्यमान है, जो सर्वदा सत् होता है। वह आकाश की तरह कभी उत्पन्न नहीं होता। यदि नित्य की उत्पत्ति मानी जाए तो उत्पन्न की फिर उत्पत्ति मानने का प्रसंग घटित होता है। वैसा होने से 'अनवस्था' नामक दोष आता है ।
एक प्रश्न उपस्थित होता है, णमोक्कार महामंत्र विद्यमान है तो जीव को मिथ्यात्वदशा में क्यों नहीं दिखाई देता ?
इसका समाधान इस प्रकार है- णमोक्कार रूप ज्ञान को आवृत्त करने वाला कर्म वहाँ विद्यमान हैं. इसलिये वह मिथ्यात्व दशा में दिखाई नहीं देता। अतीन्द्रिय ज्ञानी पुरुष, सर्वज्ञानी महापुरुष मिथ्यात्व - दशायुक्त जीव में भी प्रच्छन्न- गुप्तरूप में विद्यमान णमोक्कार महामंत्र को देख सकते हैं | उनके सिवाय अन्य आत्माएं उन्हें देख नहीं सकती ।
आत्मा का स्वरूप सदा विद्यमान रहता है किन्तु अमूर्त होने अमूर्त होने के कारण केवलज्ञानी 'कारण केवलज्ञानी महापुरुष के अतिरिक्त उसे कोई देख नहीं सकता । उसी प्रकार मिथ्यात्व अवस्था में जीव के भीतर सत्ता रूप में विद्यमान णमोक्कार मंत्र केवल ज्ञानावरणीय कर्म के कारण छद्मस्य आत्माओं को दिखाई नहीं देता।
सप्त नयों के आधार पर णमोक्कार मंत्र नित्य है । वह अनादि - अनुत्पन्न है किन्तु विशेषग्राही नय प्रक्रिया के अनुसार उसे उत्पन्न भी माना जाता है, क्योंकि साधक जब उच्चारण करता है, तब उसका शाब्दिक रूप प्रगट होता है । उसके शाश्वत रूपों को नयवाद के आधार पर प्रमाणित मानने से साधक की श्रद्धा, आस्था और विश्वास में दृढ़ता आती है, जिससे वह आराधना में विशेष उत्साह प्राप्त करता है। ज्ञान | | द्वारा समर्पित, अनुमोदित, आचार- अभ्यास उत्तरोत्तर विकसित और संवर्धित होता है ।
शुद्ध नयानुसार आत्मा का स्वरूप
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सामान्यतः नय के दो भेद माने जाते हैं- 'निश्चय नय' और 'व्यवहार नय' निश्चय नय, | शुद्ध नय कहलाता है क्योंकि वह एकांततः आत्मा के शुद्धस्वरूप के साथ संबद्ध है। आत्मा ही परम
| । सत्य या शुद्ध तत्त्व है। आचार्य कुंदकुंद ने समयसार में शुद्धनय के अनुसार आत्मा का जो वर्णन
किया है, वह उसे शुद्धोपयोग की भूमिका में ले जाता है।
उन्होंने लिखा है: - "जो जीव चारित्र, दर्शन और ज्ञान में स्थित है, निश्चय - दृष्टि से उसे स्वसमय- आत्मस्वरूपमय है, ऐसा समझे।" जो जीव पुद्गल कर्मों के प्रदेशों में स्थित है, उसे पर समय
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