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णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन
आध्यात्मिक दष्टि से वह शक्तिमत्ता, ऊर्जस्वलता जीव को सिद्धत्व की दिशा में गतिशील रहने में अत्यधिक बल प्रदान करती है किन्तु अन्न के साथ उत्पन्न होने वाले भूसे की तरह संपद्यमान पुण्य-संभार उसे ऐहिक दु:ख-निवृत्ति, समृद्धि और विभूति भी प्रदान करता है।
इस प्रकार लौकिक एवं पारलौकिक दृष्टियों से इस मंत्र की इतनी असीम महिमा है, जो शब्दों द्वारा वाच्य नहीं है।
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णमोक्कार मंत्र द्वारा नवतत्त्व का बोध
जैन धर्म एवं दर्शन नव तत्त्वों की पृष्ठभूमि पर आधारित है। जिस प्रकार एक विशाल उच्च अट्टालिका के लिये सुदढ़ आधारस्थली की आवश्यकता है, उसी प्रकार धर्म के लिये तात्त्विक आधार अत्यधिक आवश्यक है।
जैन दर्शन में जो नव तत्त्व स्वीकार किये गए हैं, वे दर्शन-पक्ष और आचार-पक्ष दोनों के ही पूरक हैं। अस्तित्व की दृष्टि से जीव और अजीव दो तत्त्व स्वीकार किए गए हैं। अर्थात् संसार में जीवात्मक और अजीवात्मक दो प्रकार के अस्तित्व हैं। णमोक्कार मंत्र सबसे पहले जीव-तत्त्व का बोध प्रदान करता है, क्योंकि अरिहंत से लेकर साधु तक पाँचों पद जीवात्मक हैं।
जीव को जब जाना जाता है तो उसके विपरीत तत्त्व का भी बोध हो जाता है। जैसे प्रकाश को जब जाना जाता है तो अंधकार की प्रतीति हो जाती है। अंधकार के बिना प्रकाश के उद्भव का बोध ही नहीं हो पाता है।
जीव के बद्ध और मुक्त दो प्रकार हैं। मुक्त जीव-चिन्मय, आनंदमय, शक्तिमय या शाश्वत सुखमय अवस्था में विद्यमान हैं। बद्ध जीव उस पद को पाना चाहते हैं, जो सिद्ध पद से, मुक्तत्व |से संबद्ध है, जो मोक्ष-तत्त्व का बोध कराता है।
बद्ध जीव मुक्तावस्था पाने की दिशा में गतिशील और उद्यमशील होते हैं। तब उन्हें दो मार्ग अपनाने होते हैं। पहला अवरोध का और दूसरा नाश का।
कर्मों का प्रवाह सर्वथा अवरोध प्राप्त करले, इसके लिए उन्हें संवर-तत्त्व को अपनाना होता है। संचित कर्म उच्छिन्न हो जाएं, इसके लिये निर्जरा का आश्रय लेना होता है। इन दोनों मार्गों का अवलंबन करने तथा सफलता पूर्वक उन पर अग्रसर होने से ही मोक्ष की सिद्धि होती है।
बद्ध जीवों की अवस्था का जब पर्यावलोकन किया जाता है, तब यह ज्ञात होता है कि ये कर्मों द्वारा बंध हुए हैं। इससे मोक्ष के प्रतिपक्षी बंध-तत्त्व का परिचय होता है। संसारी जीव सुखात्मक एवं
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