SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना शील रहने संपद्यमान दुःखात्मक स्थितियों में से गुजरते हैं। उन पर जब गहराई में जाते हैं तो पुण्य और पाप-तत्त्व को जानते है, क्योंकि जिन आत्माओं के साथ जो पुण्य-कर्म बंध हुए हैं, वे उदय में आकर सुखप्रद होते हैं और जो पाप-कर्म-बंध हुए हैं, वे उदित होकर दु:खप्रद सिद्ध होते हैं। पाप-पुण्य का स्रोत ही आम्रव तत्त्व है। जो शब्दों ल उच्च आधार नों के ही संसार में तत्त्व का 4F नवकार की तात्त्विक पृष्ठभूमि पर चिंतन करने से जिज्ञासु साधक नवतत्त्वों का बड़ी सरलता से बोध प्राप्त कर सकता है। साधना की दृष्टि से वह जब नवकार पर चिंतन करता है, तब अरिहंत और सिद्ध के ध्यान से शुद्ध आत्म-तत्त्व का अनुभव करता है, जिससे अनात्म-तत्त्व तथा अजीव-तत्त्व का बोध तो हो ही जाता है। आचार्य की सन्निधि से जब साधक आचार, व्रत-आराधना तथा संयम की दिशा में प्रगतिशील होता है, तो संवर और निर्जरामूलक अध्यवसाय में संलग्न बनता है। आचार्य और उपाध्याय का संसर्ग साधक को ज्ञान की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा देता है, जिससे उसको हेय और उपादेय-तत्त्व का बोध होता है। वह पुण्य को, पाप को जानता है। पुण्य को अपनाता है, पाप को छोड़ता है, पापपुण्य के प्रवाह रूप आस्रव को निरूद्ध करता है, फलस्वरूप बंध मिट जाते हैं। पंचमहाव्रतधारी साधुओं के सत्संग से मुमुक्षु अपने द्वारा जाने हुए पथ पर आगे बढ़ने की, स्वाध्याय, ध्यान, तप, प्रत्याख्यान आदि द्वारा अपनी साधना को उत्तरोत्तर निर्मल, उज्ज्वल बनाने की, अनवरत प्रेरणा प्राप्त करता है, जिसकी अंतिम परिणति सिद्ध पद में होती है। इस प्रकार णमोक्कार मंत्र की प्रज्ञात्मक और साधनात्मक आराधना साधक को इतनी उच्च सफलता प्रदान करती है कि वह णमोक्कार मंत्र में स्थान प्राप्त कर लेता है। काश को भव का शाश्वत मुक्तत्व दो मार्ग ता है। र्गों का नयवाद के परिप्रेक्ष्य में णमोक्कार का विश्लेषण __ अनेक धर्मात्मक वस्तु का, उसके अन्यान्य धर्मों का निषध किये बिना, उसके किसी एक धर्म की अपेक्षा से ज्ञान करना या कथन करता 'नयज्ञान' या 'नयवाद' कहा जाता है। ___ एक वस्तु में दो मूल धर्म हैं । एक द्रव्य और दूसरा पर्याय । इस दृष्टि से मूल नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो प्रकार के हैं। इन मूल दो नयों के अंतर्गत विस्तृत भेद सात या सात सौ भी हैं। अथवा जितने-जितने जानने के या कथन करने के प्रकार हैं, वे सभी नयवाद के अंतर्गत आते हैं। इसलिये कहा गया है कि जितने प्रकार के वचन भेद है, उत्तने प्रकार के नय हैं। इतना होते हुए भी शास्त्रकारों ने स्पष्टतया समझने या समझाने की दृष्टि से इन्हें सात भेदों में संग्रहीत किया है। उन सात भेदों के नाम इस प्रकार हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्दनय, समभिरूढ़ तथा एवंभूत । पे कर्मों मक एवं 86 मा KamalHARAS BEA CLEASE । Hitenie tion ...
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy