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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
| पर्याप्त नहीं है । उसका अनुभव आवश्यक है । जब तक सत्य का अनुभव नहीं हो जाता, तब तक सत्य आत्मसात् नहीं होता, केवल शास्त्र में रहता है । शास्त्र के गिरिशिखर से गंगा के प्रवाह को हमें अपनी जटा में उतारना होगा ।
संसार दु:ख रूप है और केवल मोक्ष में ही परम सुख है । इस सत्य को यदि कोई नहीं जाने तो जितनी बार चाहे उसे पुस्तक में पढ़े, उपदेशों और भाषणों में सुने, उसे सत्य का साक्षात्कार नहीं होगा। प्रत्येक अनुभवात्मक सत्य की वैज्ञानिक रूपरेखा नहीं होती क्योंकि अनुभव का क्षेत्र ऐसा विद्युत् स्वरूप है, जहाँ वहिर्भूत विचार, शब्द और भावों के पक्षी पहुँच नहीं सकते। यह नवीन दृष्टि मंत्राहि राज नवकार हमें प्रदान करता है। जिसके द्वारा एक ऐसे स्थान को देख सकते हैं, जहाँ संसार का न सुख है, न दुःख है । इस प्रकार मंत्राधिराज श्री णमोक्कार हमें समस्त सत्यों में परमसत्य का शिक्षण देता है।
णमोक्कार के मातृका पद का परम सौंदर्य हमारी अनुभूति में आएगा, तब णमोक्कार हमें मातृरूप प्रतीत होगा। जब ऐसा क्षण होगा, तब हमें यह संसार एक जलते हुए घर जैसा लगेगा, जिसमें एक क्षण भी रहना समीचीन प्रतीत नहीं होगा ।
अनुचिंतन
णमोक्कार मंत्र की गरिमा एवं महिमा के विषयों में अनेक जैन मनीषियों और ग्रंथकारों ने स्थान-स्थान पर अपने भावोद्गार व्यक्त किए हैं। यह महामंत्र जैन तत्त्वज्ञान की दृष्टि से जहाँ | अपनी विशेषता लिए हुए है, वहाँ साधना के संयम, तप और शील- संयुक्त सोपनों का भी सुंदर रूप | में दिग्दर्शन कराता है ।
'साधु' और 'सिद्ध' पद विशेष रूप से विचारणीय हैं। साधुत्व साधना का निरपवाद उद्घाटन है । सिद्धत्व उसका सम्यक् संपूर्ण समापन है । इस उद्घाटन और समापन के बीच, जो अध्यात्म यात्रा गतिशील होती है, उसमें साधना के विविध आयाम सहजतया समाविष्ट होते हैं ।
जो मंत्र ज्ञान और साधना का इतना उत्कर्ष अपने आप में समाविष्ट किए हुए हो, यह स्वाभाविक है कि उसका माहात्म्य अपूर्व, अद्भुत और विलक्षण होता है। प्रखर प्रज्ञाशील विद्वज्जनों ने शब्द-विज्ञान, लय-विज्ञान, ध्वनि-विज्ञान इत्यादि दृष्टियों के साथ-साथ प्रकृति जगत् की विविध शक्तियों और ऊर्जाओं के साथ भी इस महामंत्र पर सूक्ष्म चिंतन किया है और यह सिद्ध किया है कि यह मंत्र एक अखंड शक्ति- पुञ्ज है ।
१. महामंत्रनां अजवाळा, पृष्ठ : ६७-७४,
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