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सिद्धपद और णमोक्कार-आराधना
पक्त्व में द्वा-युक्त
जिनसे 1 व्यक्त पना है।
तात्पर्य उन्होंने द्रा और नों का
नमन पर का
अर्थात नदियाँ स्वयं अपना जल नहीं पीती, वृक्ष अपने फल नहीं खाते, बादल अपनी वष्टि द्वारा उत्पन्न धान्य को स्वयं नहीं खाते, सत्पुरुषों की संपत्तियाँ औरों के उपकार के लिये ही होती है।
परकार्याय पर्याप्ते, वरं भस्म वरं तणम् । परोपकृतिमाधातु - मक्षमो न पुन: पुमान् ।। सूर्यचन्द्रमसौ व्योम्नि, द्वौ नरौ भूषणं भुवः ।
उपकारे मतिर्यस्य, यश्च तं न बिलुम्पति ।। भस्म तथा तण तक भी किसी न किसी रूप में दूसरों का उपकार करते हैं। मनुष्य तो दूसरों के उपकार करने में कभी भी असमर्थ नहीं है। अर्थात् वह तो औरों का अनेक प्रकार से उपकार कर सकता है। जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा आकाश के अलंकार हैं, उसी प्रकार दो पुरुष इस पृथ्वी के अलंकार हैं। एक तो वह, जिसकी बुद्धि दूसरे के उपकार में लगी रहती है, और दूसरा, जो अपने प्रति किये हुए उपकार को विलुप्त नहीं करता, भूलता नहीं। कृतज्ञ पुरुष कभी भी उपकार को भूलते नहीं है।'
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः, त्रिभुवनमुपकार-श्रेणिभि: प्रीणयन्तः । परगुण-परमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यम्,
निजहृदि विकसन्त: सन्ति सन्त: कियन्तः ।। जिनके मन, वचन और कर्म में पुण्यरूपी अमत भरा रहता है, जो तीनों लोकों का उपकार करते हुए बड़े प्रसन्न रहते हैं, दूसरों के परमाणु जितने उपकार को पर्वत के सदश समझकर मन में हर्षित होते हैं, ऐसे सज्जन पुरुष इस संसार में विरले ही हैं।'
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त्त्वार्थ
नवकार से नम्रता की प्रेरणा __ अहिंसा आदि समग्र धर्मों का मूल नम्रता है। नमस्कार का भाव धर्म को सानुबंध बनाता है। धर्म को प्राप्त करने का पहला सोपान विनम्र बनना है। | धर्म को समझने के लिये जो कर्म स्वरूप को जानता है, वह अवश्य ही नम्र बनता है। नम्र बनकर संयमी बनने वाला जीव आते हुए कर्मों का निरोध करता है तथा पुराने संचित कर्मों को निजीर्ण करने हेतु तपश्चरण आदि की साधना करता है। उसमें सदा उल्लसित-प्रफुल्लित रहता है। उसका णमोक्कार में अहिंसा, संयम, तप- इन तीनों धर्मांगों को अपने आप में समाविष्ट करने का सामर्थ्य है।
१. सुभाषितरत्नभाण्डागारम्, पृष्ठ : ४९, श्लोक १७०. ३. सुभाषितरत्नभाण्डागारम, पृष्ठ : ५१, श्लोक २२१.
२. त्रैलोक्य-दीपक, पृष्ठ : ४०७, ४०८.
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