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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
जो धर्म करके अहंकार करता है, उसका वह धर्म वस्तुतः धर्म नहीं है, धर्म का आभास मात्र है । कर्म की भयानकता या दुःखोत्पादकता के ज्ञान से जो नम्रता होती है, वह वास्तविक नम्रता है। कर्म के स्वरूप का ज्ञान होते ही जीव में नम्रता आती है ।
कर्म के स्वरूप का ज्ञान हुए बिना कर्म रूपी कचरे को आत्मा से निकालने की तथा उसे रोकने की | वृत्ति ही नहीं होती । नम्रता को उत्पन्न करने वाला तत्त्वज्ञान यदि प्राप्त न हो तो आत्मा कर्म को क्षीण करने वाला तात्त्विक धर्म कैसे पा सकती है ?
अहिंसा, संयम तथा तप रूप सत्य धर्म को स्वायत्त करने के लिये कर्म की सत्ता, बंध, उदय, उदीरणा आदि जिनका सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवान् ने प्रतिपादन किया है, जानना आवश्यक है। उनको जानने से ही अहिंसा आदि धर्मों की प्राप्ति हो सकती है।
आठ कर्मों को दूर करने की शक्ति विनय में ही है। इसका तात्पर्य यह है कि आठ कर्मों के बंध ने में मुख्य कारण आठ प्रकार के मद हैं। उनका समूलोच्छेद विनय गुण द्वारा ही हो सकता है।
यह आत्मा अनादि-कर्म-संबंध से तुच्छ क्षुद्र, परतंत्र और परवश दशा में है, जिनवचन द्वारा ऐसा ज्ञान होता है । जिससे जाति, कुल, रूप, बल, लाभ, ऐश्वर्य आदि से उत्पन्न होने वाले अभिमान युक्त भावों का नाश हो जाता है तथा वास्तविक नम्रता आती है । इस प्रकार णमोक्कार - भाव आत्मा को धर्म के साथ जोड़ता है।
आठ प्रकार के मद के कारणभूत आठ कर्म, आठ कर्मों के कारणभूत चार कपाय, चार संज्ञा तथा पाँच विषय आदि से भयभीत हुआ जीव सद् धर्म पाने योग्य होता है। अर्थात् धर्म का वास्तविक पात्र या अधिकारी होता है।
जिन जीवों ने धर्म को प्राप्त किया है, उनके प्रति साधक के मन में भक्ति और प्रमोदभाव उदित | होता है। उनको देखकर वह प्रमुदित और प्रसन्न होता है जो धर्म को नहीं प्राप्त कर सकते; उनके I प्रति, साधक के मन में करुणा और माध्यस्थ भाव आता है । वह सोचता है कि इतना उत्तम धर्म ये नहीं प्राप्त कर सके, बड़े अभागे हैं, दया के पात्र हैं। साथ ही साथ वह माध्यस्थ भाव, औदासीन्य भाव या तटस्थ भाव का चिंतन करता है, क्योंकि इस संसार में करोड़ों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्होंने सद्धर्म को प्राप्त नहीं किया है । उनके प्रति माध्यस्थ भाव रखना ही साधु के लिये समीचीन होता है, क्योंकि साधु की चर्या या धर्म का मुख्य लक्ष्य परमात्म-पद पाना है। इसलिये वह विशेषतः | आत्मानोन्मुख होता है । वह जब देखता है कि लोगों की मनोवृत्ति ऐसी हो गई है कि वे अति मोहवश लोक प्रवाह में बहे जा रहे हैं, उस द्वारा शिक्षा दिये जाने पर भी वे उसकी बात मानेंगे, यह संभव नहीं लगता, ऐसी स्थिति में वह उस ओर से उदासीन या तटस्थ रहता है ।
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