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णमो सिद्धाणं पद : समीक्षात्मक परिशीलन
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अंक-विहीन शून्य की संख्या के समान है। सम्यक्त्व-गुण भी कृतज्ञ-भाव का द्योतक है। सम्यक्त्व में देव-तत्त्व, गुरु-तत्त्व तथा धर्म-तत्त्व के प्रति भक्ति और श्रद्धा का भाव है, नमन है, श्रद्धा-युक्त बहुमान है।
ये तीनों तत्त्व आत्मा के लिये परमोपकारी हैं। ऐसे हार्दिक भावों की इनमें स्वीकृति है, जिनसे सब शुभ, उत्तम सुखप्रद पदार्थ प्राप्त हो रहे हैं, होंगें, उनका स्मरण करना, उनके प्रति विनम्रता व्यक्त करना, कृतज्ञता है। कृतज्ञता कल्पवृक्ष है। वह नमस्कार है। कर्त्तव्यता कामकुंभ है। वह क्षमापना है। नवकार से सुकृतानुमोदन होता है। क्षमापना से दुष्कृत-गर्दा होती है ।
कृतज्ञता ऐसा गुण है, जो ऋण-मुक्ति की भावना उत्पन्न करता है। ऋण-मुक्ति का यह तात्पर्य है कि तीर्थंकरों का, ज्ञानियों का, साधकों का हमारे पर बड़ा उपकार एवं ऋण है। उन्होंने धर्म-देशना, शिक्षा आदि के रूप में हमें बहुत प्रदान किया है और करते हैं। उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति की अभिव्यक्ति, समर्पण, प्रणमन- कृतज्ञता है। ऋण-मुक्ति और कर्म-मुक्ति इन दोनों का | उसमें समन्वय है। ये दोनों अव्याबाध सुखस्वरूप मोक्ष प्रदान कराने वाली है। जो योग्य को नमन करता है, उसका विकास होता है। जो नमन नहीं करता, उसका पतन होता है। यह संसार का अविचल नियम है।
णमोक्कार मंत्र दानरुचि का भी प्रेरक है। णमोक्कार सर्वश्रेष्ठ पुरुषों के सर्वोत्कृष्ट सद्गुणों के प्रति दान है, समर्पण है। दान की रूचि के बिना जैसे दानादि कार्य गुण नहीं बन सकते, वैसे ही नमस्कार के बिना पुण्य-कार्य, पुण्यानुबंधी- पुण्यस्वरूप नहीं बन सकते। नम्रता का मूल- कृतज्ञता है। कृतज्ञता का बीज- परोपकार है। परोपकार का बीज- जगत् का स्वभाव है। इस संसार का धारण, पालन तथा पोषण परोपकार से ही हो रहा है ।
कोई भी क्षण ऐसा नहीं है, जिसमें एक जीव दूसरे जीव का उपकार नहीं करता हो । तत्त्वार्थ सूत्र में उल्लेख है :
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परस्परोपग्रहो जीवानाम् । जीव परस्पर एक-दूसरे के उपग्रह- आधार या सहयोग पर ही अवस्थित हैं। नीतिकारों ने बहुत ही सुन्दर कहा है :- "
पिबन्ति नद्य: स्वयमेव नांभ:, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः । नादन्ति शस्यं खलु वारिवाहा:, परोपकाराय सतां विभूतयः ।।
१. तत्त्वार्थ-सूत्र, अध्याय-५, सूत्र-२१.
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