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इसी तरह बचपन से सुना है, मंदिर जाना चाहिये, नमोकार मंत्र सीखना चाहिये तो कभी कभी तो करते हैं. जब अपने कामों से थकते हैं
और कोई पार्टी भी नहीं होती तो फिर अवश्य मंदिर जाते हैं. फिर प्रभु को जानने कि के वे कैसे प्रभु बने उत्सुकता है ही कहां ? प्रभु जैसा ही शुद्ध, चिदानंदी आत्मा इस शरीर में भी मौजूद है ऐसा तो विचार भी कहां ? इतना तो इस संसार और हमारी कमजोरियोंसे प्रभावित हैं कि प्रभु मुझमें हो भी सकता है, इस बातपर विश्वास ही कहां ?
हमारे पंच परमेष्ठी, हमारे गुरु, हमारे जिनशास्त्र कहते हैं कमजोरियोंको ध्यान से देखो, इतने सालोंसे जिन मान्यताओंसे जी रहे हो परखो
तभी इन कर्मों की रजकणोंमें छिपा अमूल्य हीरा तुम्हारा ही है, तुम्हारे ही पास है मान पाओगे, समझ पाओगे, और फिर अपनी मान्यताओंको सही कर उनमें दृढ़ता ला, एक ऐसा अनोखा पुरुषार्थ कर उसे ढूंढ निकालोगे, ढूंढ निकालोगे
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