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________________ भावों का खेल मन में अशुभ भाव आ ही जाते हैं, तो फिर मन में दुख होता है, जीव तू ऐसा कैसे विचारता है इतना जिनवाणी, गुरुवाणी, वीतरागता को पढ़ता है फिर भी अशुभ भाव ! और जीव अशुभ को याद कर दुखी होता है गुरुवाणी तो मिली है तेरे शुद्ध ज्ञायक भाव को भावने के लिये उस पर एकाग्र होने के लिये अशुभ भाव आ गये तो उनके कारण थे बाहर, कारणों को भी तू नहीं हटा सकता और अपने भावों को भी तू रोक नहीं सकता, बदल नहीं सकता जीव तू तेरा स्वयं का ही पुरुषार्थ कर, कि तू स्वयं तो इन भावों से भिन्न, अलग, ज्ञायक भाव ही है तू तो इन भावों के खेल को सिर्फ, केवल, जान ही सकता है, देख ही सकता है ये अशुभ भाव तेरे नहीं, तू इन्हें कर भी नहीं सकता तो भी होते हैं न? क्यों होते हैं? क्यों ये मुझे सताते हैं? क्यों दुख देते हैं ? तो गुरुवाणी को याद कर, इन भावों से स्वयं को भिन्न देख, अलग देख स्वयं को शुद्ध, निर्मल, केवल, जानने वाला ही देख. इन भावों के खेल में ही तू न पड़ शुभ भाव तो और भी कठिन हैं. वे तो अच्छे, अंतरंग में मीठे लगते हैं सारी दुनिया भी उन्हें संवारती है. उन्हींको मान सम्मान देती है. जीव तू तो सावधान हो ले इन शुभ भावों को भी अपने स्वयं के न मान. इनके कारण भी बाहर ही हैं
SR No.009269
Book TitleMukt Gulam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Maru
PublisherHansraj C Maru
Publication Year2014
Total Pages176
LanguageGujarati, Hindi, English
ClassificationBook_Gujarati, Book_Devnagari, & Book_English
File Size23 MB
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