________________
प्रभु श्रद्धा हो मेरी
प्रभु श्रद्धा हो मेरी स्व में तुझ तरह, तो पाऊं मैं स्वचारित्र, बनूं मैं विमुख दुखों से, आकुलता और व्याकुलता से, और पाऊं मैं अतीन्द्रिय सुख निराकुलता का । बनी है ये मेरी दशा अनंतानंत समय से, विपरीत रही है श्रद्धा एवं चारित्र भवों से प्रभु श्रद्धा हो मेरी स्व में तुझ तरह, तो पाऊं मैं स्वचारित्र, बनूं मैं विमुख दुखों से
प्रभु भटक रहा हूं, मैं जब से निकला निगोद से, फिर मैंने बिताया अनंता अनंत समय इन चारों गतियों में, प्रभु भटका हूं मैं तीनों लोक और उनके सारे क्षेत्रों में बनी है ये मेरी दशा क्योंकि विपरीत रही श्रद्धा और चारित्र मेरा, ज्ञान ने तो जाना स्व को और पर को लेकिन मैंने तो पर को ही जाना मेरा, और उसी में मेरा हित माना फिर मेरा उपयोग भी लग सके सिर्फ पर के ही ज्ञान में, ज्ञान है मेरा विपरीत और है पराधीन इन्द्रियों का इसीलिए प्रभु मैं भूलता रहा स्व को, और मेरे अतीन्द्रिय शाश्वत सुख को प्रभु श्रद्धा हो मेरी स्व में तुझ तरह, तो पाऊं मैं स्वचारित्र, बनूं मैं विमुख दुखों से
प्रभु तूने तो कैसा अजायब पुरुषार्थ किया, ढूंढ़ निकाला स्व को ऐसे अपार संसार में से संसार तो है कितना बड़ा, कितना दिलचस्प, भूलता है और लुभाता है इस जीव को क्षण क्षण में तूने तो जहां नजर डाली, देखा स्व को, पहचाना स्व को, वृद्ध को देखा तो शरीर की अनित्यता को जाना, रोगी को देखा तो अकर्ता पने का आत्म गुण पहचाना, मुर्दे को देखा तो इस शरीर से अलग स्व आत्मा को पा लिया और पा लिया शाश्वत सदैव का परम सुख प्रभु श्रद्धा हो मेरी स्व में तुझ तरह, तो पाऊं मैं स्वचारित्र, बनूं मैं विमुख दुखों से