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पड़ोसी
घर हो तो ऐसा कि पड़ोसी भी अच्छे हों, पास में रहें
समय पर मदद करें, अच्छे स्वभाव के हों
रोज रोज की खटखट न हो, घड़ी घड़ी दरवाजे पर आकर खड़े न हो जायें, मुझे मेरी स्वतंत्रता भी दें
घर भी शांत, सूर्य के प्रकाश से उज्जवलित, खुला, किसी भी प्रकार की तकलीफों से अलग हो
प्रभु मुझे तो दोनों ही जैसे चाहिए थे वैसे ही मिले, लेकिन पागल मैं मेरी समझ में ही गड़बड़ हो गई
प्रभु मैं तो पड़ोसी के घर को ही मेरा समझ बैठा, रोज उसीकी चिंता, उसीकी सफाई और उसीसे प्यार करने लगा. अब तो वो ठहरा आखिर पड़ोसी, कभी बिगड़ जाय, तो कभी मुझे परेशान कर डाले
पड़ोसी की तो बात ही क्या करूं? वो तो मुझे हर दो घंटे कुछ न कुछ के लिए बुलाये
मैं भी उसीका विचारता, उसीकी प्रशंसा करता. यहां तक कि गौरव भी तो मैं उसीका करने लगा
गलती भी मेरी ही है, जब मैं ही उसके घर में रहने लगा तो वो बिचारा क्या करे ? मेरे खुदके शांत प्रकाशमान, उज्जवलित, आनंदी घर को पूरा ही भूल गया. मेरा घर भी है, उसका भी मुझे भास नहीं
इस पड़ोसी की परेशानियां घटतीं बढ़ती, मेरी तो बेचैनी, आकुलता, कभी रोना, कभी हंसना जारी रहता एक दिन अचानक मैं मेरे एक बहुत ही पुराने सच्चे अच्छे मित्र से मिला, उसने कहा भाई ये क्या हो गया ? तुम्हारा तो इतना सुन्दर घर था. कहां गया? ये किसके घर में रह रहे हो ? वो तो बड़े आश्चर्य से
मुझे बहुत समझाने लगा. उसे लगा कि मैं तो पागल हो गया हूं, मुझे मेरा ही घर मालूम नहीं
मेरे दोस्त मुझे बड़े ही गुस्से के साथ प्यार और उत्साह से समझाया
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