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अब सोचेंगे, ये कैसी बात है, खुदका शरीर भी पराया, तो जियें ही कैसे ? जब गांधीजी ने पहले पहल भारत आकर भारतीयों को कहा कि अपन तो अपने ही घर में कैद हैं, तो सभी को लगा कि अभी-अभी बाहर से आया जवान क्या तो कह रहा धीरे धीरे भारतीय समझे
इसी तरह हमारे मुनि, आचार्यों की बातें यदि हम विचारें गहनता से उनकी महत्ता समझें तो हमें समझ आयेगा कि कैसे हमारे आत्मा को हमने, हमारे ही शरीर में, पर भावों, शुभाशुभ भावों में कैद कर रखा है उसकी स्वतंत्रता पर उसके निज स्वभाव पर जंजीरें पहनाई हैं।
जैसे गांधीजी सत्य के बल से निर्भय थे, वैसे ही जैन मुनि भी निर्भय निडर, अडोल होते हैं. उन्हें यह दुनिया प्रभावित नहीं करती
गांधी की अहिंसक लड़ाई दुनिया के लिये एक मिसाल थी
हमारे मुनियों का आत्मपुरुषार्थ मानवता को सत के अनुभव के लिये एक चुनौती है
मानतुंग आचार्य को मान्यतायें बदलना भी कैद जैसा लगा. राजा आचार्य को जंजीरों से बंधवाते हैं, और आचार्य स्वयं की आत्म शक्ति से सारी जंजीरों को एक एक कर ऐसी तोड़ते हैं कि राजा और प्रजा आश्चर्य को पाते हैं
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