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तभी ऐसा लगा कि इसी तरह ही ये सारा संसार भी तो चल रहा है न
इसका न कोई कर्ता और न कोई संचालक, सारे द्रव्य स्वयंमें स्वयंसे स्वयंके ही गुण परिणमन करते हैं और इन निमित्तनैमित्तिक संबंधों से यह संसार अपने आप ही चल रहा है
संसार में राग है, रंग है, क्षमा है, क्रोध है, कलियां हैं, और हैं फूल. रात के बाद सबेरा, ठंडी के बाद वसंत ऋतु और संसार तो जारी ही है. सारा संसार महफिल की तरह स्वयं ही चलता रहता है. इस सब बीच मैं तो चैतन्य ज्ञान स्वरूप स्वतंत्र हूं, जाननहार हूं स्वयं से ही हूं
आज मुझे अकर्तापने का, द्रव्य की स्वतंत्रता का और सारे द्रव्यों की परिणमनशीलता का जैसे प्रत्यक्ष ही अनुभव हुआ. आंखों के सामने जैसे सभी वाजिंत्र बज रहे हैं, सुर है और ताल है फिर भी सभी स्वतंत्र रूप से परिणमन करते हुए भी संगीत भी है
ऐसे ही छ द्रव्यों से ये पूरा संसार है इसमें न कोई इष्ट न अनिष्ट, न छोटा न बड़ा, और नहीं कोई किसीका. सारे द्रव्य स्वयं से, स्वयं में, गुणों से युक्त स्वतंत्र और मैं
जीव चैतन्य भी स्वतंत्र, ज्ञानस्वरूप चिदानंदी ही हूं
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