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संगीत की महफिल
संगीत की महफिल जमी थी बहुत सारे कलाकार एकत्रित हुए थे, तबलों के ताल थे, सितारों के सुर, हारमोनियम की धुन और कलाकारों की मधुर आवाज़ हाथ और उंगलियां तो तबलों पर नृत्य ही कर रही थीं
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महफिल रंगीन थी, कानों को मधुर लग रही थी, वातावरण सुरों से भरा कलाकारों के राग से रंग गया था, थोड़ी देर तो मैं भी इसी में रंग गयी फिर विचार चला कि कैसे यह महफिल बनी ?
जैन दर्शन तो कहता है कि सारे द्रव्य स्वयं के गुणों और पर्यायों से युक्त खुद में खुद से ही है कोई द्रव्य या द्रव्य का परमाणु भी किसी ओर के लिए कभी भी कुछ भी नहीं कर सकता तो फिर कैसे यह महफिल मुमकिन है ?
ये सारे वाजंत्र, ये हाथ, उंगलियां, आवाज, सभी तो अलग अलग परमाणुओं से बने पुद्गल हैं उंगलियां या
हाथ तबला बजाना तो क्या उसे छूते तक नहीं सभी स्वयंमें स्वतंत्र हैं
मैं चैतन्य जान रही हूं, यह भी तो हम व्यवहार से कहते हैं,
वास्तव में तो मैं चैतन्य खुद को ही जान सकती हूं और ये सारे पर ज्ञेय तो मेरे ज्ञान में
आ जाते हैं. ज्ञेय हैं इसलिए नहीं ये तो ज्ञान की ही विशेषता है
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