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हे पंचपरमेष्ठी तेरा सौम्य, अपरिणामी, स्थिर रूप ही मुझे भी मेरा अपरिणामी स्थिर रूप दिखाता है वही परिणमता ज्ञान इस अज्ञान को भी जानता है देखता है, तभी तो मैं इस अज्ञान रूप को मुझ से भिन्न जान मान स्वयं में ही ठहर सकता हूं
हे पंचपरमेष्ठी तभी मैं भी मेरा खुदका सौम्य रूप जान, मान, पहचान मेरे तेरे ही संग से धीरे धीरे पूर्ण तय तेरे जैसे ही ज्ञानमय ज्ञायक भावरूप औदायिक, क्षयोपशम, उपशम, क्षायिक से भिन्न ही परमपारिणामिक भाव स्वरूप हो लेता हूं
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