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मुक्त जीव और पुद्गल
मैं ही मेरी ही मिथ्यामान्यताओं का कैदी और यह शरीर संबंध ही मेरी जैल वैसे तो मैं चैतन्य सदा से ही मुक्त और जैल रूप पुद्गल भी तो मुक्त
मुझ कैदी ने ही स्वयं को कैदी समझा क्या मैं इस कैद में ही स्वयं को स्वतंत्र मान, जान, पहचान, समझ सकता मक्त ही प्रतीत एवं अनुभव कर सकता
मैं कैदी भी मुक्त और जैल भी मुक्त मैं संसारी और जैल सारी ही पुद्गल मैं मेरे क्रम में और पुद्गल स्वयं के ही क्रम में जैसा केवली गम्य, परिणमता
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